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________________ XIV पुण्य-पाप तत्त्व पुण्य-पाप तत्त्व का आगम एवं कर्म-सिद्धांत के आलोक में किया गया प्रतिपादन मौलिक-चिंतन एवं तार्किक कौशल से परिपूर्ण है। पं. श्री लोढ़ा साहब आगम एवं कर्मसिद्धांत के विशेषज्ञ होने के साथ प्रखर समीक्षक एवं साधक भी हैं। उन्होंने आत्मिक-विकास क्रम के आधार पर पुण्य तत्त्व एवं पुण्य कर्म दोनों की उपयोगिता सिद्ध की है। आदरणीय प्रो. सागरमलजी जैन ने विद्वत्तापूर्ण भूमिका लिखकर जहाँ इस कृति को सुगम बनाया है वहाँ इसके महत्त्व का भी प्रतिपादन किया है। प्रो. जैन का यह स्पष्ट मन्तव्य है कि पुण्य न बंधनकारी है और न हेय, अपितु उसके साथ रहा हुआ कषाय, ममत्व, आसक्ति या फलाकांक्षा बंधनकारी है, जो त्याज्य है। 'पुण्य-पाप तत्त्व' पुस्तक के प्रथम संस्करण का प्रकाशन प्राकृत भारती अकादमी से हुआ था, उसमें कुछ संशोधन एवं अध्याय-क्रम में परिवर्तन किया गया है। परम श्रद्धेय आचार्य प्रवर श्री हीराचन्द्रजी म.सा. के आज्ञानुवर्ती सन्तप्रवर तत्त्वचिन्तक श्री प्रमोदमुनिजी म.सा. के पुण्यपाप विषयक चिंतन का भी पुस्तक के लेखक श्री लोढ़ा साहब द्वारा समादर किया गया है, जिससे यह पुस्तक स्थानकवासी एवं अन्य परम्पराओं के लिए भी सर्वथा उपयोगी बन गई है। आशा है विद्वद्वर्य पं. कन्हैयालालजी लोढ़ा की यह कृति सभी जैन सम्प्रदायों में अध्ययन का विषय बनेगी एवं इससे विचारों को नई दिशा मिलेगी। -प्रो. धर्मचन्द जैन प्रधान सम्पादक-जिनवाणी
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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