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________________ पुण्य का उपार्जन कषाय की कमी से और पाप का उपार्जन कषाय की वृद्धि से 91 करता है। अत: जहाँ क्रोध नहीं है वहाँ ही प्रीति भाव है। प्रीति ही मैत्री है। मैत्री जहाँ होती है वहाँ वैर भाव नहीं होता-क्षमा भाव होता है। कहा भी है खामि सव्वे जीवा, सव्वे जीवा खमंतु मे मित्ती मे सव्वभूएस, वेरं मज्झं न केणइ ।। - आवश्यक सूत्र, पाँचवाँ आवश्यक अर्थात् मैं सब जीवों को क्षमा करता हूँ, सब जीव मुझे क्षमा करें। सब प्राणियों के प्रति मेरा मैत्री भाव है, मेरा किसी से भी वैर नहीं है। इस भाव से हृदय में प्रीति उमड़ती है जो प्राणियों की पीड़ा शोक आदि दुःखों को दूर करने वाले अनुकंपा गुण के रूप में प्रकट होती है। जिससे साता वेदनीय कर्म का उपार्जन होता है। - सातावेदनीय के विपरीत असातावेदनीय है। क्रोध कषाय के उदय से द्वेष और वैरभाव उत्पन्न होता है। जिससे वह दूसरों के प्रति क्रूरता या असाता उपजाने का व्यवहार करने लगता है और स्वयं द्वेष और वैरभाव की अग्नि में जलने लगता है, जिससे अशांति और खिन्नता का अनुभव होता है। यही असातावेदनीय कर्म का हेतु है । सारांश यह है कि क्रोध कषाय की क्षीणता से सातावेदनीय एवं क्रोध कषाय के उदय से असातावेदनीय कर्म का उपार्जन होता है। शुभ आयु कर्म का बंध आयु कर्म की चार प्रकृतियाँ हैं। इनमें 1. तिर्यंच आयु 2. मनुष्य आयु और 3. देव आयु पुण्य प्रकृतियाँ हैं। मनुष्य आयु और देव आयु का निर्माण तृष्णा-लोभ की कमी से होता है अर्थात् जितना-जितना आरंभपरिग्रह घटता जाता है उतनी - उतनी शुभ आयु अधिक होती है। अभिप्राय
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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