SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 13
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ XII पुण्य-पाप तत्त्व कषाय के क्षय से शुभ नामकर्म और (4) लोभ कषाय में कमी होने से शुभ आयु कर्म का उपार्जन होता है। इसके विपरीत इन चारों कषायों में वृद्धि से क्रमश: (1) असाता वेदनीय (2) नीचगोत्र (3) अशुभ नामकर्म और (4) अशुभ आयु का बंध होता है। जितना पुण्य बढ़ता है अर्थात् विशुद्धिभाव बढ़ता है उतना ही पाप कर्मों का क्षय होता है। क्षायोपशमिक, औपशमिक एवं क्षायिकभाव शुभभाव हैं। इनसे कर्मों का बंध नहीं होता है। कर्मों का बंध औदयिकभाव से ही होता है। इस प्रकार का प्रतिपादन 'पुण्य-पाप की उत्पत्ति-वृद्धिक्षय की प्रक्रिया' प्रकरण में किया गया है। लेखक का यह सुदृढ़ मन्तव्य है कि मुक्ति में पुण्य सहायक है एवं पाप बाधक है। पुण्य आत्मा को पवित्र करता है, बद्ध कर्मों की स्थिति का अपकर्षण करता है, इसलिए वह मुक्ति में सहायक है, जबकि पाप कर्म विशेषत: घाती कर्म मुक्ति में बाधक है। लेखक का यह भी कथन है कि पुण्य के अनुभाग का क्षय किसी प्रकार की साधना से संभव नहीं है। ___ पुण्य और पाप की चौकड़ी के अंतर्गत श्री लोढ़ा साहब ने असातावेदनीय के उदय में संक्लेश भावों से होने वाले कर्मबंध को पापानुबंधी पाप बताया है। उन्होंने धवला टीका के आधार पर सातावेदनीय के उदय में संक्लेश भावों से होने वाले कर्मबंध को पापानुबंधी पुण्य एवं विशुद्धि भावों से होने वाले कर्मबंध को पुण्यानुबंधी पुण्य बताया है। पुण्य शुभयोग रूप होता है। जयधवला टीका में कहा गया है कि यदि शुभ एवं शुद्ध परिणामों से कर्मों का क्षय न माना जाय तो फिर कर्मों का क्षय हो ही नहीं सकता- 'सुह-सुद्धपरिणामे हिं कम्मक्खयाभावे तक्खयाणुववत्तीदो' (जयधवला पुस्तक, पृष्ठ 5) इसी ग्रन्थ में अनुकम्पा एवं शुद्ध उपयोग को पुण्यास्रव का एवं अदया और अशुद्ध उपयोग को पापास्रव
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy