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________________ सम्पादकीय ___ (3) चौदहवें अयोगी गुणस्थान के द्विचरम समय तक चारों अघाती कर्मों की 85 पुण्य-पाप प्रकृतियों की सत्ता रहने पर भी केवलज्ञान, केवलदर्शन आदि क्षायिक लब्धियाँ प्रकट होने में बाधा उपस्थित नहीं होती। (4) मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, सुभग, आदेय, यशकीर्ति आदि पुण्य-प्रकृतियों के उदय की अवस्था में ही साधुत्व (महाव्रत) तथा वीतरागता की साधना एवं केवलज्ञान, केवलदर्शन की उत्पत्ति सम्भव है। ___(5) चारों अघाती कर्मों की मनुष्यायु, उच्चगोत्र, मनुष्यगति, यशकीर्ति आदि 12 पुण्य प्रकृतियों का उदय 14वें गुणस्थान में मुक्ति-प्राप्ति के अंतिम समय तक रहता है। पुण्य-पाप का संबंध अनुभाग बंध से है। जब परिणामों में विशुद्धि होती है तो पुण्य प्रकृतियों के अनुभाग में वृद्धि होती है तथा पाप प्रकृतियों के अनुभाग में कमी होती है। इससे पुण्य एवं पाप के परस्पर विरोधी होने का बोध होता है। एक विशेष बात यह है कि पुण्य एवं पाप दोनों कर्मों का स्थिति बंध कषाय से होता है। अत: परिणामों में विशुद्धि होने पर दोनों की स्थिति का अपवर्तन (ह्रास) होता है। विशुद्धिभाव होने पर पूर्वबद्ध पाप प्रकृतियों का पुण्य प्रकृतियों में संक्रमण होता है, पापस्रव का कथंचित् संवर होता है, आदि तथ्यों का निरूपण 'पुण्य-पाप का परिणाम' लेख में किया गया है। एक विशेष बात यह कही गई है कि पुण्य कर्म के अनुभाग में वृद्धि स्थिति बंध के क्षय में हेतु होती है। _ 'पुण्य का उपार्जन कषाय की कमी से और पाप का उपार्जन कषाय के उदय से' प्रकरण में पुण्योपार्जन एवं पापोपार्जन की विस्तृत चर्चा करने के साथ यह प्रतिपादित किया गया है कि (1) क्रोध कषाय के क्षय (कमी) से सातावेदनीय (2) मान कषाय के क्षय से उच्चगोत्र (3) माया
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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