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________________ 7. तेजस्काय तेजस्यकाय या अग्निकाय स्थावर जीवों का तीसरा भेद है। जीवाभिगम नामक आगम में अग्निकाय-जीवों का शरीर, अवगाहना, संहनन, संस्थान, संज्ञा, कषाय आदि 23 द्वारों से विस्तृत वर्णन है। पन्नवणा, उत्तराध्ययन, स्थानांग आदि आगमों में भी अग्निकाय के जीवों पर उल्लेखनीय विवेचन है। अग्निकाय की सजीवता इसी से सिद्ध है कि अग्नि उसी प्रकार श्वासोच्छ्वास लेती है जैसे अन्य जीव लेते हैं। जिस प्रकार मनुष्य श्वास लेने में ऑक्सीजन (प्राणवायु) ग्रहण करता है और श्वास छोड़ने में कार्बन-डाई-ऑक्साइड (विषवायु) बाहर निकालता है, उसका हवा के अभाव में दम घुटने लगता है व जीवन दीप बुझ जाता है; उसी प्रकार अग्नि भी श्वास लेने में ऑक्सीजन (प्राणवायु) ग्रहण करती है और श्वास छोड़ने में कार्बन-डाई-ऑक्साइड बाहर निकालती है अर्थात् अग्नि हवा में ही जीवित रहती व जलती है। किसी बर्तन से ढ़क देने व अन्य किसी प्रकार से हवा मिलना बंद हो जाने पर आग तत्काल बुझ जाती है। पुराने बंद कुएँ में अथवा उस भूमिगृह में जिसे कई वर्षों से न खोला हो, जलता हुआ दीपक रख दिया जाय तो तुरंत बुझ जाता है। इस कारण भी दीपक की लौ की अग्नि को जीवित रहने के लिए जिस प्राणवायु की आवश्यकता होती है उसका वहाँ अभाव होता है।
SR No.034365
Book TitleVigyan ke Aalok Me Jeev Ajeev Tattva Evam Dravya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherAnand Shah
Publication Year2016
Total Pages315
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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