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________________ पाँचवाँ अध्ययन] [85 अन्वयार्थ-गोयरे = भिक्षा हेतु । दवदवस्स = शीघ्रतापूर्वक । न गच्छेज्जा = नहीं जावे । हसंतो = हँसता हुआ । य भासमाणो = और संभाषण करता हुआ । ण अभिगच्छेज्जा = नहीं जावे । उच्चावयं = छोटे-बड़े । कुलं = कुलों में। सया = सदा ईर्या-समिति पूर्वक जावे। भावार्थ-साधु संयमी है, इसलिए उसका चलना-घूमना भी यतना और विवेक से होना चाहिए । गौ की तरह अनेक घरों से अल्प-अल्प पिण्ड लेने वाला मुनि भिक्षा हेतु नीच-ऊँच कुलों में जाते समय कभी भी दबदब करते हुए तेज नहीं चले और न हँसता हुआ बातें करता-बोलता हुआ भी चले। आलोअंथिग्गलं दारं, संधिं दगभवणाणि य। चरंतो ण विणिज्झाए, संकट्ठाणं विवज्जए ।।15।। हिन्दी पद्यानुवाद भिक्षा में गया न मुनि देखे, जाली, दरवाजा सेंध भींत । जलगृह-शंकित-स्थानों पर, टकटकी लगाना है वर्जित ।। अन्वयार्थ-चरंतो = गोचरी हेतु विचरते हुए साधु । आलोअं = भवन के झरोखों को । थिग्गलं = दीवार के छिद्र को। दारं = दरवाजे को । संधिं = दो भींत की सन्धि को । दगभवणाणि य = और पानी रखने के स्थान को । ण विणिज्झाए = दृष्टि जमा कर न देखे । संकट्ठाणं = शंका के स्थान हों, उनको । विवज्जए = दूर से ही वर्जन करे । भावार्थ-साधु जितेन्द्रिय और स्थिरमति होता है। कहा गया है कि वह चलते हुए किसी घर के झरोखे को, सुन्दर द्वार को, दो घरों के बीच की सन्धि और जल रखने के स्थान को दृष्टि जमा कर नहीं देखे। क्योंकि इन सबकी ओर देखने से साधु के शील-चारित्र में शंका हो सकती है। अत: संयमी सन्त ऐसे शंकास्थानों का वर्जन करें। रण्णो गिहवईणं च, रहस्सारक्खियाणि य। संकिलेसकरं ठाणं, दूरओ परिवज्जए ।।16।। हिन्दी पद्यानुवाद राजा गृहपति रक्षक का, होवे जहाँ रहस्यागार । क्लेश विवर्द्धक उन पद को, तजे दूर से ही 'अनगार'।। अन्वयार्थ-रण्णो = राजा के । गिहवईणं च = और गृहपतियों के । य आरक्खियाणि = और नगर-रक्षक आदि के । रहस्स = गोपनीय स्थानों को । संकिलेसकरं = तथा संक्लेशकारी । ठाणं = स्थानों को । दूरओ = दूर से ही। परिवज्जए = वर्जन कर दे।
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
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