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________________ चतुर्थ अध्ययन [73 छोड़कर ऋजु श्रेणी से आकाश क्षेत्र को बिना स्पर्श किये एक समय में सकल कर्म का क्षय कर लोक के शीर्ष भाग में स्थित होकर शाश्वत काल पर्यन्त शुद्ध स्वरूप में लीन हो जाते हैं। सुहसायगस्स समणस्स, सायाउलगस्स निगामसाइस्स। __ उच्छोलणापहोयस्स, दुल्लहा सुगई तारिसगस्स ।।26।। हिन्दी पद्यानुवाद सुख के स्वादी साता व्याकुल, निद्रा को जो आदर देते। धावन प्रधान जो आरंभी, वे श्रमण सुगति दुर्लभ पाते ।। अन्वयार्थ-सुहसायगस्स = सुख में आसक्त रहने वाले । सायाउलगस्स = साता-सुख हेतु व्याकुल रहने वाले । निगामसाइस्स = अधिक सोने वाले । उच्छोलणापहोयस्स = शरीर की शोभा के लिए हाथ-पैर आदि को धोने वाले । तारिसगस्स = वैसे। समणस्स = साधु को । सुगइ = शुभ गति मिलना । दुल्लहा = दुर्लभ है। भावार्थ-जो साधु सुख की इच्छा वाला है, साता-सुख के लिए जो मन की अधीरता के कारण आकुल रहता है, समय से अधिक सोता है और मुलायम बिस्तर परआराम से सोना चाहता है, बार-बार हाथ-पैर धोता और अधिक धोता एवं पानी का विशेष उपयोग करता है, उसकी सुगति दुर्लभ होती है। तवोगुणपहाणस्स उज्जुमइ, खंतिसंजमरयस्स। परीसहे जिणंतस्स ‘सुलहा सुगई' तारिसगस्स ।।27।। हिन्दी पद्यानुवाद तप गुण प्रधान ऋजु शुद्ध बुद्धि, जो क्षमा साधना रत मुनिवर । जो परीषहों के जेता हैं, ऐसों की सद्गति है सुखकर ।। अन्वयार्थ-तवोगुणपहाणस्स = तपस्या रूपी गुणों से प्रधान । उज्जुमइ = सरल मति । खंतिसंजमरयस्स = क्षमा और संयम में रमण करने वाले । परीसहे = परीषहों को। जिणंतस्स = जीतने वाले । तारिसगस्स = वैसे साधु को । सुगई = शुभ गति । सुलहा = सुलभ है, सरलता से प्राप्त होती है। भावार्थ-जो तप गुण की प्रधानता वाला है, सदा बाह्य एवं आभ्यन्तर तप करता रहता है, सरल मति वाला और क्षमा एवं 17 प्रकार के संयम में रमण करता है, भूख-प्यास आदि परीषहों को जीतने वाला है, कष्ट आने पर कभी घबराता नहीं, वैसे साधक को सुगति सुलभ होती है। पच्छावि ते पयाया, खिप्पं गच्छंति अमरभवणाई। जेसिं पिओ तवो संजमो य, खंती य बंभचेरं य ।।28।।
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
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