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________________ चतुर्थ अध्ययन [49 भन्ते ! मैं अतीत के रात्रि भोजन से निवृत्त होता हूँ, निन्दा करता हूँ, गर्दा करता हूँ, और दूषित आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ। टिप्पणी-पाँच महाव्रतों के पश्चात् रात्रि भोजन-विरमण का भी व्रत के रूप में कथन किया गया है। वैसे यह अहिंसा महाव्रत में गर्भित हो जाता है, किन्तु साधक पाँच महाव्रतों की तरह इसे भी अवश्य पालनीय व्रत समझे, इसीलिये इसको छठे व्रत के रूप में कहा गया है। ___ छठे अध्ययन की 24वीं गाथा में कहा है कि सचित्त जल से गीला बीजयुक्त भोजन और भूमि पर गिरे हुए छोटे जीवों को दिन में बचाया जा सकता है, किन्तु रात में कैसे बचाया जाय ? इसलिये रात्रि भोजन नहीं करना चाहिये। इच्चे याइं पंच महव्वयाइं-राइभोयण-वेरमण-छट्ठाई, अत्तहियट्ठयाए उवसंपज्जित्ता णं विहरामि ।।17।। हिन्दी पद्यानुवाद पूर्व कथित ये पंच महाव्रत, छट्ठा रात्रि भोजन विरमण। अपने हित के हेतु ग्रहण कर, करता हूँ मैं जग विचरण ।। अन्वयार्थ-इच्चेयाई = इस प्रकार ये । पंच महव्वयाई = पाँच महाव्रत और । राइभोयणवेरमण छट्ठाई = छठे रात्रि भोजन विरमण को। अत्तहियट्ठयाए = आत्मा के हितार्थ । उवसंपज्जित्ता णं = स्वीकार करके । विहरामि = विचरता हूँ। भावार्थ-मैं इन पाँच महाव्रतों और रात्रि भोजन विरति रूप छठे व्रत को आत्म-कल्याण के लिये स्वीकार कर विचरण करता हूँ। से भिक्खू वा भिक्खुणी वा, संजय-विरय-पडिहय-पच्चक्खायपावकम्मे, दिआ वा, राओ वा, एगओ वा, परिसागओ वा, सुत्ते वा, जागरमाणे वा, से पुढविं वा, भित्तिं वा, सिलं वा, लेलुं वा, ससरक्खं वा कायं, ससरक्खं वा वत्थं, हत्थेण वा, पाएण वा, कट्टेण वा, किलिंचेण वा, अंगुलियाए वा, सिलागाए वा, सिलागहत्थेण वा, न आलिहिज्जा, न विलिहिज्जा, न घट्टिज्जा, न भिंदिज्जा, अन्नं न आलिहाविज्जा, न विलिहाविजा, न घट्टाविज्जा, न भिंदाविज्जा, अन्नं आलिहंतं वा, विलिहंतं वा, घटुंतं वा, भिंदंतं वा, न समणुजाणिज्जा, जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं, मणेणं, वायाए, काएणं, न करेमि, न कारवेमि, करंतंपि अन्नं न समणुजाणामि। तस्स भंते ! पडिक्कमामि, निंदामि, गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ।।18।।
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
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