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________________ चतुर्थ अध्ययन [39 अन्वयार्थ-इच्चेसिं = इन । छण्हं जीवनिकायाणं = 6 जीव निकायों के लिए । सयं = स्वयं । दंडं = दण्ड का । नेव समारंभिज्जा (समारंभेजा) = समारम्भ करना नहीं । अन्नेहिं = दूसरों से । दंडं = दण्ड का । नेव समारंभाविज्जा (समारंभावेज्जा) = समारम्भ करवाना नहीं । दंडं = दण्ड का । समारंभंते = समारम्भ करने वाले । अन्ने वि = अन्य को भी। न समणुजाणिज्जा (समणुजाणेज्जा) = अच्छा मानना नहीं। जावज्जीवाए = जीवन भर के लिए। तिविहं = तीन करण । तिविहेणं = तीन योग से। मणेणं = मन से । वायाए = वचन से और । काएणं = काया से । न करेमि = करूँ नहीं। न कारवेमि = करवाऊँ नहीं। करतं पि = करने वाले । अन्नं = अन्य का । न समणुजाणामि = अनुमोदन भी करूँ नहीं। तस्स = उस पूर्वकृत समारम्भ का । भन्ते ! = हे पूज्य । पडिक्कमामि = मैं प्रतिक्रमण करता हूँ। निंदामि = निन्दा करता हूँ। गरिहामि = गर्दा करता हूँ। अप्पाणं = उस पाप से अपनी आत्मा को । वोसिरामि = व्युत्सर्ग (अलग) करता हूँ। भावार्थ-षट्कायिक जीवों का परिचय देकर अब गुरुदेव उनकी रक्षा का उपदेश देते हैं-जैन मुनि का यह संकल्प होता है कि पृथ्वीकाय से लेकर त्रसकाय तक के इन जीवों का स्वयं दण्ड का समारम्भ करना नहीं, दूसरों से दण्ड समारम्भ कराना नहीं और हिंसादि दण्ड करने वालों का अनुमोदन करना नहीं, मन, वचन और काया से तीन करण और तीन योग से जीवन भर के लिये । भूतकाल में जो दण्ड समारम्भ किया है, उसके लिए प्रतिक्रमण करना, निन्दा एवं गुरु साक्षी से गर्दा करते हुए पापकारी आत्मा का व्युत्सर्ग करना भी मुनि की चर्या का आवश्यक अंग है। पढमे भंते ! महव्वए पाणाइवायाओ वेरमणं । सव्वं भंते ! पाणाइवायं पच्चक्खामि, से सुहुमं वा, बायरं वा, तसं वा, थावरं वा, नेव सयं पाणे अइवाइज्जा, नेवन्नेहिं पाणे अइवायाविज्जा (अइवायावेज्जा), पाणे अइवायंते वि अन्ने न समणुजाणिज्जा (समणुजाणेज्जा), जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं, मणेणं, वायाए, काएणं, न करेमि न कारवेमि, करंतं पि अन्नं न समणुजाणामि, तस्स भंते ! पडिक्कमामि, निंदामि, गरिहामि, अप्पाणं वोसिरामि । पढमे भंते ! महव्वए उवढिओ मि, सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं ।।।1।। हिन्दी पद्यानुवाद प्रथम महाव्रत में भदन्त, प्राणातिपात विरमण होता। इसलिए सभी हिंसा कार्यों से, तोड़ रहा हूँ मैं नाता ।। हो सूक्ष्म तथा बादर अथवा त्रस, स्थावर भी कोई जीव कहीं। हिंसा न करूँ ना करवाऊँ, करते को अच्छा कहूँ नहीं ।।
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
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