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________________ 38] [दशवैकालिक सूत्र जीव । सव्वे नेरइया = सब नरक योनि के जीव । सव्वे मणुआ = सब मनुष्य और । सव्वे देवा = सब देव । सव्वे पाणा = सब प्राणी । परमाहम्मिया = परम सुख के अभिलाषी (परम अधर्मिक) हैं। एसो = यह । खलु = निश्चय से । छट्ठो जीवनिकाओ = छठा जीव निकाय । तसकाओ (तसकाउ) = त्रसकाय । त्ति = इस नाम से । पवुच्चइ = कहा जाता है। भावार्थ-त्रस प्राणी अनेक प्रकार के कहे गये हैं, जो मुख्य रूप से इस प्रकार हैं-1. अंडे से उत्पन्न होने वाले अंडज, 2. थैली से उत्पन्न होने वाले पोतज, 3. जर से लिपटे हुए उत्पन्न होने वाले जरायुज, 4. रस के विकार में उत्पन्न होने वाले रसज, 5. स्वेद पसीने से उत्पन्न होने वाले लूँ, लीख, खटमल आदि स्वेदज, 6. बिना गर्भ के उत्पन्न होने वाले कीड़े, पतंगे आदि सम्मूर्च्छिम, 7. भूमि फोड़कर उत्पन्न होने वाले उद्भिज्ज, 8. उपपात से उत्पन्न होने वाले औपपातिक । इस प्रकार से आठ प्रकार के त्रस जीव हैं। जिन प्राणियों में सामने आना, पीछे जाना, संकोच, प्रसारण, शब्द करना, भ्रमण करना, भयभीत होना, भागना और आगति-गति का ज्ञान होना-ये लक्षण होते हैं, वे त्रस जीव कहलाते हैं। कीड़े पतंगे-कुंथु एवं पिपीलिका आदि सब दो इन्द्रिय से पाँच इन्द्रिय वाले जीव त्रस हैं। गति की अपेक्षा एकेन्द्रिय को छोड़कर, सब तिर्यंच योनि के जीव, सब नारकीय जीव, सब मनुष्य और सब देवता, ये सब त्रस प्राणी हलन चलन वाले है। सब त्रस प्राणी परम सुख के अभिलाषी हैं। (कोई जीव द:ख नहीं चाहता)। ये सब जीव त्रसकाय कहे जाते हैं। ये सुख-दुःख को और हर्ष-खेद को व्यक्त करते हैं, अत: इनमें स्थूल चेतना है। इच्चेसिं छण्हं जीवनिकायाणं नेव सयं दंडं समारंभिज्जा नेवन्नेहिं दंड समारंभाविज्जा, दंडं समारंभंते वि अन्ने न समणुजाणिज्जा जावज्जीवाए, तिविहं तिविहेणं, मणेणं, वायाए, काएणं, न करेमि, न कारवेमि, करंतं पि अण्णं न समणुजाणामि। तस्स भंते ! पडिक्कमामि, निंदामि, गरिहामि, अप्पाणं वोसिरामि।।10।। हिन्दी पद्यानुवाद ऐसे षट्कायिक जीवों पर, नहीं स्वयं दण्ड आरम्भ करना। दण्ड दिलाना नहीं पर से, देते पर को न भला कहना ।। हिंसा का वर्जन जीवन भर, हमको करना मन से तन से। ना स्वयं करे न करवाये, करते को शुभ न कहे मन से ।। ऐसे दण्डों से गुरुवरजी, मैं स्वयं दूर अब होता हूँ। निन्दा गर्दा कर पापों की, व्युत्सर्ग उन्हें अब करता हूँ।।
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
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