SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 246
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 234] हिन्दी पद्यानुवाद हत्थ - पाय-पडिच्छिन्नं, कण्ण-नास - विगप्पियं । अवि वाससइं नारिं, बंभयारी विवज्जए 115611 छिन्न हाथ पावों वाली, और कटी नाक कानों वाली । संग तजे उस नारी का भी, चाहे हो सौ वर्षों वाली ।। हिन्दी पद्यानुवाद अन्वयार्थ - हत्थपाय पडिच्छिन्नं = जिसके हाथ-पैर कटे हों । कण्ण नास विगप्पियं = नाककान काट लिये गये हों वैसी । वाससइं = सौ वर्ष की आयु वाली । अवि = भी। नारिं = वृद्धा नारी का । बंभयारी विवज्जए = ब्रह्मचारी वर्जन करे, उससे दूर रहे । [दशवैकालिक सूत्र भावार्थ-साधु को ब्रह्मभाव की दृढ़ता के लिये पूर्ण सतर्क रहने की शिक्षा देते हुए कहा गया है जिसके हाथ-पैर कटे हों, नाक-कान आदि अंगोपांग भी काट लिये गये हों या गल गये हों, विकृत हो गये हों, वैसी शतायु-वृद्धा नारी का भी ब्रह्मचारी संसर्ग नहीं करे । यद्यपि ऐसी वृद्धा को देखकर कामना जागृत नहीं होती तथापि स्त्री मात्र से दूर रहने की भावना को बिना अपवाद के क्रियात्मक रूप देने को कहा गया है। विभूसा इत्थिसंसग्गो, पणीयं रसभोयणं । नरस्सऽत्तगवेसिस्स, विसं तालउडं जहा ।। 57 ।। तन-मंडन संगति नारी की, करना घृतादि रस का सेवन । विष ताल पुट की तरह इन्हें, जाने आत्मान्वेषी जन ।। अन्वयार्थ-अत्तगवेसिस्स = आत्मा का हित चाहने वाला । नरस्स = मनुष्य साधु के लिये । विभूसा = वस्त्र - विलेपनादि से शरीर की शोभा बढ़ाना । इत्थिसंसग्गो = स्त्री जनों का विशेष परिचय करना । पणीयं रसभोयणं = बलवर्द्धक सरस भोजन का सेवन करना । तालउडं = तालपुट । विसं = विष के । जहा = समान है । भावार्थ-जीवन को सुरक्षित रखने के लिये जैसे विषैले भोजन से बचना आवश्यक होता है, वैसे ही आत्म-कल्याणार्थी के लिये कहा गया है कि संयमी साधु अपने व्रत की सुरक्षा के लिये शरीर की शोभा, विभूषा, सजावट, महिलाओं का अधिक संसर्ग और बलवर्द्धक - सरस भोजन को तालपुट विष के समान घातक समझकर इनसे पूर्ण सावधान रहे । विष तो खाने पर ही प्राण हरण करता है पर स्त्री-संसर्ग तो दर्शन और स्मरण मात्र से आत्मगुणों की हानि कर बैठता है । अत: कल्याणार्थी को लोकैषणा के चक्र में न पड़कर विभूषा आदि से बचने का ध्यान रखना चाहिये।
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy