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________________ आठवाँ अध्ययन] [227 भावार्थ-साध निद्रा को अधिक आदर नहीं दे। प्रतिक्रमण में प्रतिदिन 'पगाम सिज्जाए, निगाम सिज्जाए' पाठ से इसकी आलोचना की जाती है। हँसी मजाक या अट्टहास नहीं करे । परस्पर इधर-उधर की कथा वार्ता में समय नहीं गंवाते-खोते हुए, वाचना, पृच्छा रूप स्वाध्याय में सदा रमण करे। नीतिकारों ने बुद्धिमान् की पहचान में यही कहा है कि-“काव्य शास्त्रविनोदेन, कालो गच्छति धीमताम् ।” विद्वानों का समय काव्य-शास्त्र के विनोद में जाता है। वैसे धर्मानुरागी श्रमणों को स्वाध्याय के अनुशीलन और चिन्तन में ही सदा तत्पर रहना चाहिए। जोगं च समणधम्मम्मि, जुंजे अणलसो धुवं । जुत्तो य समणधम्मम्मि, अटुं लहइ अणुत्तरं ।।43।। हिन्दी पद्यानुवाद आलस्य शून्य होकर निश्चय, दश श्रमण धर्म में लीन रहे। सर्वोत्तम फल वह प्राप्त करे, जो श्रमण धर्म में लगा रहे ।। अन्वयार्थ-अणलसो = साधु आलस्य रहित होकर । च = और । समणधम्मम्मि = श्रमण धर्म में । जोगं = मन, वाणी और काया योग को । धुवं = अखण्डित । मुंजे = जोड़े। य = और । समणधम्मम्मि = क्षान्ति आदि श्रमण धर्म में । जुत्तो = जुड़ा हुआ मुनि । अणुत्तरं = मुक्ति रूप सर्वश्रेष्ठ । अटुं = अर्थ को। लहइ = प्राप्त करता है। भावार्थ-मुमुक्षु श्रमण आलस्य रहित होकर क्षान्ति, मुक्ति, आर्जव, मार्दव, लाघव, सत्य, संयम, तप, त्याग, ब्रह्मचर्यवास रूप श्रमण धर्म में निरन्तर मन, वाणी एवं काय योग को जोड़े रहें। जो श्रमण धर्म में संलग्न होता है वह सर्वश्रेष्ठ मोक्ष रूप अर्थ को प्राप्त करता है। दशविध धर्म की साधना से संचित कर्मों का क्षय और आने वाले कर्मों का पूर्ण निरोध होता है। इहलोग पारत्तहियं, जेणं गच्छ इ सुग्गई। बहुस्सुयं पज्जुवासिज्जा, पुच्छिज्जत्थ विणिच्छयं ।।44।। हिन्दी पद्यानुवाद जो उभयलोक का हितकर है, जिससे है सुगति प्राप्त होती। उस निश्चयार्थ के बारे में, गुरु सेवा आवश्यक होती।। अन्वयार्थ-जेणं = जिस ज्ञान से । इहलोग = इस लोक और । पारत्तहियं = परलोक में हित होता है और साधक । सुग्गई = सुगति । गच्छइ = प्राप्त करता है। जेणं = उसके लिये । बहुस्सुयं = बहुश्रुत की। पज्जुवासिज्जा = पर्युपासना करे और उनसे । पुच्छिज्ज त्थ = तत्त्व का अर्थ पूछकर । विणिच्छयं = निश्चय करें।
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
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