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________________ 226] [दशवैकालिक सूत्र भावार्थ-क्रोध आदि कषाय संसार-वृक्ष को बढ़ाने वाले हैं। अत: कहा है कि उपशम और विनय से अनियन्त्रित क्रोध और मान तथा बढ़ते हुए माया और लोभ के कलुषित भाव ये चारों मलिन कषाय जन्ममरण रूप संसार वृक्ष के मूल का सिंचन करने वाले हैं। मुमुक्षु को सदा सावधान मन से इनका निग्रह करना चाहिये। रायणिएसु विणयं पउंजे, धुवसीलयं सययं न हावइज्जा। कुम्मुव्व अल्लीण पलीण गुत्तो, परक्कमिज्जा तवसंजमम्मि ।।41।। हिन्दी पद्यानुवाद रत्नाधिक में विनय करे, अष्टादश सहस्र शील पाले। कच्छपवत् अंग छिपा रक्खे, तप संयम में मन को डाले।। अन्वयार्थ-रायणिएसु = रत्नाधिक चारित्र वृद्ध एवं ज्ञानवृद्ध साधुओं में । विणयं = विनय का । पउंजे = प्रयोग करे । धुवसीलयं = ध्रुवशीलता को अर्थात् अठारह हजार शीलांग की रक्षा को । सययं = कभी । न हावइज्जा = कम नहीं होने दे। कुम्मुव्व = कछुए के समान । अल्लीणपलीणगुत्तो = इन्द्रियों को वश में रखने वाला। तव संजमम्मि = तप संयम में। परक्कमिज्जा = अपना पराक्रम दिखावे। भावार्थ-जिन शासन की मर्यादा में वय, वैभव और उच्चकुल की अपेक्षा भी चारित्र की महिमा अधिक मानी गई है। व्रतियों में छोटे-बड़े का क्रम भी चारित्र पर्याय से ही माना जाता है। इस दृष्टि से शास्त्रकारों ने कहा कि दीक्षा वृद्ध साधुओं में वन्दन-विनय का प्रयोग करो एवं ध्रुवशीलता को कभी कम मत होने दो। कच्छप के समान अपने अंग और इन्द्रियों को वश में रखकर, तप-संयम में अपनी शक्ति लगाते रहो, उसमें अपना पराक्रम दिखाते रहो। निदं च न बहु मण्णिज्जा, सप्पहासं विवज्जए। मिहो कहाहिं न रमे, सज्झायम्मि रओ सया।।42।। हिन्दी पद्यानुवाद निद्रा को अधिक सम्मान न दे, और अट्टहास का त्याग करे। आसक्त न लोक कथा में हो, स्वाध्याय आदि में ध्यान धरे ।। अन्वयार्थ-निदं = निद्रा को । बहु मण्णिज्जा = अधिक आदर । न = नहीं दे। च = और । सप्पहासं = अट्टहास का। विवज्जए = वर्जन करे । मिहो कहाहिं = आत्मार्थी साधक परस्पर विकथाओं के सुनने, कहने में । न रमे = रमण नहीं करे, किन्तु । सया = सदा । सज्झायम्मि = स्वाध्याय में । रओ = रत रहें।
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
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