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________________ आठवाँ अध्ययन] [215 इसके लिये शास्त्र कहता है कि-आहार अथवा पानी आदि के लिये गृहस्थ के घर में प्रवेश करके साधु वहाँ घर में यतना से खड़ा रहे, आवश्यकतानुसार परिमित भाषण करे । इधर-उधर की बात नहीं करे । घर के विविध सामान और शृंगार-साधन तथा स्त्री आदि के सचित्त-अचित्त रूपों पर कभी ध्यान नहीं देवे । उन पर मन नहीं करे। बहुं सुणेइ कण्णेहिं, बहुं अच्छीहिं पिच्छइ । न य दिटुं सुयं सव्वं, भिक्खू अक्खाउमरिहइ ।।20।। हिन्दी पद्यानुवाद कानों से सुनते बहुत बात, आँखों से बहुत देखते हैं। देखा और सुना सब कुछ, मुनि कथन नहीं कर सकते हैं।। अन्वयार्थ-कण्णेहिं = साधु कानों से । बहुं = बहुत । सुणेइ = सुनता है। अच्छीहिं = आँखों से । बहुं = बहुत । पिच्छइ = देखता है, किन्तु । भिक्खू = साधु के लिये । सव्वं = सब कुछ । दिलृ = देखा । य = और । सुयं = सुना । न अक्खाउमरिहइ = उसका कथन करना योग्य नहीं होता। भावार्थ-साधु छोटे-बड़े अनेक घरों में भिक्षार्थ जाता है। वह बहुत देखता और सुनता है, किन्तु उसकी मर्यादा है कि वह जो कुछ आँख से देखता और कानों से सुनता है उन सब देखी, सुनी बात को बाहर किसी को कहता नहीं । उसकी इस गम्भीरता और प्रामाणिकता से ही वह लोक में विश्वासपात्र माना जाता है। मुनि मेतार्य के लिये कहा जाता है कि एक दिन वे भिक्षा लेने किसी स्वर्णकार के घर पहुँचे । स्वर्णकार सन्तों का भक्त था अत: मुनि को देखकर वह अपना काम छोड़कर भिक्षा देने के लिये मुनि के साथ घर के भीतर गया। बाहर सुवर्णमय जौ के दाने थाल में पड़े थे। अचानक एक मुर्गा आया । वह सुवर्ण के दानों को चुग गया। मुनि को भिक्षा देकर जब स्वर्णकार अपने स्थान पर लौटा तो उसे सुवर्ण के दाने नहीं दिखाई दिये। उसने इधर-उधर देखा पर कहीं दाने नहीं मिले तो उसने महाराज को आवाज देकर पूछा-“महाराज ! अभी आप आये तब मेरी दरी पर सुवर्णमय जौ के दाने पड़े थे, पर मैं आपको भिक्षा देकर तुरन्त ही वापिस आकर देखता हूँ कि सुवर्ण के जौ नहीं हैं। आपने किसी को लेते देखा हो तो बताओ?' मुनि ने मुर्गे को उधर से निकलते देखकर भी इसलिये नहीं कहा कि इस मक प्राणी को कष्ट होगा । स्वर्णकार के द्वारा दो-तीन बार पूछने पर भी जब मुनि कुछ नहीं बोले, तब स्वर्णकार ने उन्हीं को अपराधी मानकर, मुनि के सिर पर गीला चमड़ा बांधकर बाड़े में धूप वाले स्थान पर खड़ा कर दिया । ज्यों-ज्यों चमड़ा सूखता गया मुनि का कष्ट बढ़ता गया। फिर भी उन्होंने मुर्गे को दोषी नहीं बताया । सहसा इसी बीच एक लकड़ी बेचने वाला आया। सुनार ने वह लकड़ी की भारी खरीद ली। जब भील ने लकड़ी की भारी गिराई, तो भारी गिरने की तेज
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
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