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________________ 154] [दशवैकालिक सूत्र अन्वयार्थ-अहो = आश्चर्य है। सव्वबुद्धेहिं = सभी तीर्थङ्करों ने। णिच्चं = ऐसा नित्य । तवोकम्मं = तप कर्म । वण्णियं = वर्णन किया है। जा य = जो कि । लज्जासमा = संयम के अनुकूल । वित्ती = वृत्ति-जीविका । एगभत्तं च = और एक बार । भोयणं = आहार करना कहा है। भावार्थ-साधुओं के लिये तीर्थङ्करों ने ऐसा नित्य तप कर्म कहा है कि संयम के अनुकूल वृत्ति हो और कारण को छोड़कर केवल एक बार (यानी दिन में ही) आहार ग्रहण हो । संतिमे सुहुमा पाणा, तसा अदुव थावरा । जाइं राओ अपासंतो, कहमेसणियं चरे ।।24।। हिन्दी पद्यानुवाद ये सूक्ष्म जीव रहते भू पर, त्रस अथवा स्थावर योनि के। रजनी में दृष्टि न आते हैं, निर्दोष अशन ले किस घर से ।। अन्वयार्थ-इमे सुहुमा = ये बहुत से सूक्ष्म । पाणा = प्राणी । तसा = त्रस । अदुव = अथवा । थावरा = स्थावर । संति = हैं । जाई = जो । राओ = रात्रि में । अपासंतो = दृष्टिगोचर नहीं होते, फिर । एसणियं = निर्दोष भिक्षा के लिये रात्रि में । कहं = कैसे । चरे = भ्रमण हो सकता है? भावार्थ-बहुत से सूक्ष्म प्राणी त्रस अथवा स्थावर के रूप में रहते हैं जो रात्रि में दृष्टिगोचर नहीं होते, ऐसी स्थिति में रात्रि को निर्दोष भिक्षा के लिये कैसे जाना हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता है। इसलिये साधु रात्रिकाल में भिक्षार्थ नहीं जाता। उदउल्लं बीयसंसत्तं, पाणा णिवडिया महिं। दिया ताई विवज्जिज्जा, राओ तत्थ कहं चरे ।।25।। हिन्दी पद्यानुवाद कच्चा, जल बीजादि युक्त, पृथ्वी पर प्राणी रहते हैं। दिन में वे टाले जा सकते, कैसे निशि में टल सकते हैं ?।। अन्वयार्थ-महिं = भूमि पर । उदउल्लं = पानी का गीलापन । बीयसंसत्तं = सचित्त बीजों का संसर्ग । पाणा = और पतंगादि प्राणी। णिवडिया = पड़े होते हैं। ताई = उनका। दिया = दिन में। विवज्जिज्जा = बचाव किया जा सकता है। राओ = रात्रि में । तत्थ = उनकी रक्षा में । कहं = कैसे । चरे = चला जायेगा? भावार्थ-भूमि पर कहीं सचित्त बीज बिखरे होते हैं, कहीं पानी भरा या गीला होता है, कहीं पतंगादि
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
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