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________________ [153 छठा अध्ययन] हिन्दी पद्यानुवाद उस त्रायी ज्ञातपुत्र प्रभु ने, ना इन्हें परिग्रह बतलाया है। आसक्ति परिग्रह कहलाती, ऐसा जिनवर ने गाया है।। अन्वयार्थ-ताइणा = षट्काय के रक्षक । णायपुत्तेण = ज्ञात पुत्र ने । सो = वह वस्त्रादि धारण । परिग्गहो = परिग्रह । ण = नहीं । वुत्तो = कहा है । मुच्छा = क्योंकि मूर्छा । परिग्गहो = परिग्रह । वुत्तो = कहा है। इइ = ऐसा । महेसिणा = महर्षि महावीर ने । वुत्तं = कहा है। भावार्थ-षट्काय जीवों के रक्षक श्रमण भगवान महावीर ने वस्त्रादि उपकरण रखने को परिग्रह नहीं कहा है। क्योंकि वास्तव में तो उनमें मूर्छा यानी आसक्ति रखने को महर्षि महावीर ने परिग्रह बतलाया है। सव्वत्थुवहिणा बुद्धा, संरक्खणपरिग्गहे । अवि अप्पणो वि देहम्मि, णायरंति ममाइयं ।।22।। हिन्दी पद्यानुवाद सर्वत्र उपधि धारक ज्ञानी, संरक्षण हेतु परिग्रह में । रखते ममत्व ना थोड़ा भी, अपने भी तो प्यारे तन में ।। अन्वयार्थ-बुद्धा = तत्त्व के ज्ञाता मुनि । सव्वत्थ = सर्वदा । उवहिणा = रजोहरण, मुखवस्त्रिका आदि उपकरण । संरक्खण = संयम रक्षण के लिये । परिग्गहे = ग्रहण करते हैं। अवि = तो क्या वे । अप्पणो वि = अपने ही । देहम्मि = शरीर पर भी । ममाइयं = ममता भाव का । णायरंति = आचरण नहीं करते। भावार्थ-जिन शासन के ज्ञाता मुनि सर्वत्र रजोहरणादि उपकरणों को संयम की रक्षा के लिये ही ग्रहण करते हैं । स्थविरकल्पी ही नहीं, कम से कम दो उपकरण-रजोहरण व मुखवस्त्रिका जिनकल्पी मुनि भी रखते हैं। उन उपकरणों पर उनका ममत्व नहीं होता। उपकरण की क्या बात, ज्ञानवान् मुनि अपने शरीर पर भी मूर्छाभाव तथा ममता भाव नहीं रखते। अहो णिच्चं तवोकम्मं, सव्वबुद्धेहिं वण्णियं । जा य लज्जा समावित्ती, एगभत्तं च भोयणं ।।23।। हिन्दी पद्यानुवाद अहो ! सभी तीर्थङ्कर ने यह, नित्य कर्म तप बतलाया। भिक्षा से एक समय भोजन, है संयम के अनुरूप कहा ।।
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
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