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________________ 138] [दशवैकालिक सूत्र हिन्दी पद्यानुवाद आचार्य श्रमण गण का वैसा, है साधु न करता आराधन। करते गृहस्थ उसकी निन्दा, जिस लिये जानते वे सब जन ।। अन्वयार्थ-तारिसो = वैसा मायावी । आयरिए = आचार्य देव । यावि = और । समणे = साधु मण्डल को । णाराहेइ = विनयादि से सन्तुष्ट नहीं करता । गिहत्था वि = गृहस्थ भी। ण गरिहंति = उसकी निन्दा करते हैं । जेण = इसलिये कि । तारिसं = वे उसे मायावी । जाणंति = जानते हैं। भावार्थ-वैसा मायाचारी अपने गुरु आचार्य और साधुओं की विनयादि से सेवा नहीं करता है और न उन्हें सन्तोष उत्पन्न कराता है। गृहस्थ भी उसके वैसे आचार को जानकर उसकी निन्दा करते हैं। एवं तु अगुणप्पेही, गुणाणं च विवज्जए। तारिसो मरणं ते वि, णाराहे इ संवरं ।।41।। हिन्दी पद्यानुवाद इस तरह अगुण-दर्शी एवं, सद्गुण का त्यागी बना श्रमण । वह मृत्यु घड़ी के आने तक, संवर कर सकता नहीं ग्रहण ।। अन्वयार्थ-एवं तु = इस प्रकार । अगुणप्पेही = अगुणप्रेक्षी (दुर्गुणों का धारक)। च = और । गुणाणं = गुणों का । विवज्जए = वर्जन करने वाला । तारिसो = वैसा भिक्षु । मरणंते वि = मरण काल में भी। संवरं = संवर धर्म की। ण आराहेड = आराधना नहीं कर पाता। भावार्थ-इस प्रकार दुर्गुणों को धारण करने और सद्गुणों को छोड़ने वाला भिक्षु मरण काल में भी संवर धर्म की आराधना नहीं कर पाता। तवं कुव्वइ मेहावी, पणीयं वज्जए रसं । मज्जप्पमायविरओ, तवस्सी अइउक्कसो ।।42।। हिन्दी पद्यानुवाद मेधावी मुनि तप करता, और स्निग्ध अशन वर्जन करता। मद प्रमाद विरत रहकर, मन में कुछ दर्प नहीं रखता ।। अन्वयार्थ-मेहावी = जो बुद्धिमान साधु । मज्जप्पमायविरओ = मद और प्रमाद से बचकर । पणीयं = प्रणीत । रसं = रस का । वज्जए = वर्जन करता है। तवं = और तपस्या । कुव्वइ = करता है। अइउक्कसो = वह निरभिमान पूर्वक (निर्दोष) । तवस्सी = तपस्या वाला है।
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
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