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________________ पाँचवाँ अध्ययन] [137 = = दोषों को । पस्सह = देखो। च = और। मे = मेरे द्वारा । णियडिं= उसके कपटाचार को । सुणेह श्रवण करो । भावार्थ- जो भगवान की आज्ञा का चोर छिपकर एकाकी पीता है और समझता है कि मुझे कोई नहीं जानता उस मायाचारी के दोषों को देखो और मुझसे उसके कपटाचार को श्रवण करो । हिन्दी पद्यानुवाद वड्ढइ सुंडिया तस्स, मायामोसं च भिक्खुणो । अयसो य अनिव्वाणं, सययं च असाहुया ।।38 ।। बढ़ती मद-आसक्ति और, माया मिथ्या उस भिक्षुक की। अपकीर्ति अतृप्ति हरक्षण में, ऐसी असाधुता भी उसकी ।। अन्वयार्थ-तस्स = उस । भिक्खुणो = अजितेन्द्रिय साधु की। सुंडिया = पानासक्ति और । मायामोसं = कपटपूर्ण मृषा । च = और । अयसो य = तथा अपकीर्ति । अणिव्वाणं च = अशान्ति और । सययं = निरन्तर (सतत ) । असाहुया = असाधुता (उन्मत्तता) । वड्ढइ = बढ़ती है। हिन्दी पद्यानुवाद भावार्थ-उपर्युक्त दोष के कारण उसकी पानासक्ति के साथ-साथ अपकीर्ति, अशान्ति और निरन्तर असाधुता बढ़ती रहती है। णिच्चुव्विग्गो जहा तेणो, अत्तकम्मेहिं दुम्मई । तारसो मरणंते वि, ण आराहेइ संवरं ॥139 ।। ज्यों चोर स्वकृत दुष्कृत्यों से, है सदा व्याकुल बना रहता । दुर्बुद्धि मृत्यु क्षण तक भी वह, ना संवर आराधन करता ।। अन्वयार्थ-अत्तकम्मेहिं = अपने दुष्कर्मों से । दुम्मई = वह दुर्मति । तेणो जहा = चोर के समान । णिच्चुव्विग्गो = सदा उद्विग्न बना रहता है। तारिसो= वैसा साधक । मरणंते वि = मरणांत समय में भी। संवरं = संवर धर्म का । ण आराहेइ = आराधना नहीं कर पाता । भावार्थ-वैसा भिक्षु अपने दुष्कर्मों से चोर की तरह सदा उद्विग्न रहता है। वह अन्त समय में भी संवर धर्म की आराधना नहीं कर सकता। आयरिए णाराहेइ, समणे यावि तारियो । गिहत्था वि णं गरिहंति, जेण जाणंति तारिसं ।।40।।
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
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