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________________ { 70 [ अंतगडदसासूत्र शुभेन परिणामेन प्रशस्ताध्यवसायेन तदावरणीयानां कर्मणां क्षयेन कर्मरजविकिरणकरम् अपूर्वकरणमनुप्रविष्टस्य अनन्तमनुत्तरं यावत् केवलवरज्ञानदर्शनं समुत्पन्नम् ततः पश्चात् सिद्धः यावत् प्रहीणः । तत्र खलु यथा संनिहितैः देवैः सम्यक् आराधित: इति कृत्वा दिव्यं सुरभिगन्धोदकं वृष्टं दशार्धवर्णानि कुसुमानि निपातितानि, चैलोत्क्षेप: कृत: दिव्यं च गीतं गान्धर्वनिनादः कृत: चापि अभूत् । अन्वयार्थ-तए णं तस्स गयसुकुमालस्स = अंगार रखने के बाद उस गजसुकुमाल, अणगार सरीरयंसि वेयणा = मुनि के शरीर में तीव्र वेदना, पाउब्भूया = उत्पन्न हुई, जो, उज्जला जाव दुरहियासा = अत्यन्त दुःखरूप यावत् असह्य थी, तए णं से = तब वह, गयसुकुमाले अणगारे = गजसुकुमाल मुनिवर, सोमिलस्स माहणस्स मणसा = सोमिल ब्राह्मण पर मन से, वि अप्पदुस्समाणे तं उज्जलं = भी द्वेष न लाते हुए उस तीव्रतर, जाव अहियासेई = दुःखरूपवेदना को सहन करने लगे । तए णं तस्स गयसुकुमालस्स = उस समय उस गजसुकुमाल, अणगारस्स तं उज्जलं जाव = मुनि द्वारा उस तीव्र यावत् एकान्त वेदना, अहियासेमाणस्स सुभेणं = को सहन करते हुए प्रशस्त शुभ, परिणामेणं पसत्थज्झवसाणेणं परिणाम पूर्वक अध्यवसाय के कारण, तयावरणिज्जाणं कम्माणं = आवरणीय कर्म का, खएणं कम्मरयविकिरणकरं = क्षय होने से कर्मरज को बिखेरने वाले, अपुव्वकरणं अणुप्पविट्ठस्स = अपूर्व करण में प्रविष्ट होने से, अणंते, अणुत्तरे जाव = अनन्त सर्वश्रेष्ठ पूर्ण, केवलवरणाण-दंसणे = केवल ज्ञान और केवल दर्शन, समुप्पण्णे तओ पच्छा = उत्पन्न हुआ। इसके बाद, सिद्धे जावप्पहीणे = वे सिद्ध बुद्ध यावत् सब दुःखों से मुक्त हो गये । तत्थ णं अहा संणिहिएहिं = तदनन्तर जो वहाँ समीप थे, देवेहिं सम्म आराहियंति | = उन देवों ने भली प्रकार आराधना की, कट्टु दिव्वे सुरभिगंधोदए वुट्ठे = तथा दिव्य सुगन्धित जल की वर्षा की, दसद्धवण्णे कुसुमे णिवाइए = पाँच वर्ण के पुष्प गिराये, चेलुक्खेवे कए = वस्त्रों की वर्षा की और, दिव्वे य गीय-गंधव्वणिणाए कए यावि होत्था = दिव्य गीत और गन्धर्ववाद्ययन्त्र की ध्वनि भी हुई। = भावार्थ - सिर पर उन जाज्वल्यमान अंगारों के रखे जाने से गजसुकुमाल मुनि के शरीर में महा भयंकर वेदना उत्पन्न हुई जो अत्यन्त दाहक दुःखपूर्ण यावत् दुस्सह थी। इतना होने पर भी वे गज-सुकुमाल मुनि सोमिल ब्राह्मण पर मन से भी लेश मात्र भी द्वेष नहीं करते हुए उस एकान्त दुःख रूप वेदना को यावत् समभावपूर्वक सहन करने लगे । उस समय उस एकान्त दुःखपूर्ण दुस्सह दाहक वेदना को समभाव से सहन करते हुए शुभ परिणामों तथा प्रशस्त शुभ अध्यवसायों (भावनाओं) के फलस्वरूप आत्मगुणों पर भिन्न-भिन्न रूपों वाले तद् तदावरणीय कर्मों के क्षय से समस्त कर्म-रज को झाड़कर साफ कर देने वाले कर्म विनाशक अपूर्व-करण में
SR No.034358
Book TitleAntgada Dasanga Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_antkrutdasha
File Size2 MB
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