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________________ तृतीय वर्ग - आठवाँ अध्ययन ] 67} प्रतिनिवृत्य महाकालस्य श्मशानस्य अदूरसमन्तात् व्यतिव्रजन संध्याकालसमये प्रविरलमानुषे गजसुकुमालम् अनगारम् पश्यति, दृष्ट्वा तत् वैरं स्मरति, स्मृत्वा आशुरक्तः एवम् अवदत्-एष खलु भो ! स: गजसुकुमाल: कुमार: अप्रार्थितः यावत् परिवर्जितः, यः खलु मम दुहितरं, सोमश्रिया: भार्यायाः आत्मजां सोमां दारिकां अदृष्टदोषप्रकृति, कालवर्तिनीं विप्रहाय मुण्डो यावत् प्रव्रजितः । अन्वायार्थ-इमं च णं सोमिले माहणे = यह सोमिल ब्राह्मण, सामिधेयस्स अट्ठाए बारवईओ = हवन की लकड़ी के लिए द्वारावती, नयरीओ बहिया, पुव्वणिग्गए = नगरी से बाहर, पहले से निकला हुआ, समिहाओ य = हवनीय काष्ठ, दब्भे य कुसे य पत्तामोडयं य = दर्भ, कुश और अग्रभाग में मुड़े हुए (सूखे) पत्तों को, गिण्हइ, गिण्हित्ता तओ =लेता है, लेकर वहाँ से, पडिणियत्तइ पडिणियत्तित्ता = लौटता है। लौटकर, महाकालस्स सुसाणस्स = महाकाल श्मशान के, अदूरसामंतेणं वीइवयमाणे = निकट से जाते हुए, संझाकालसमयंसि = संध्याकाल के समय में जब, पविरलमणुस्संसि = कि मनुष्यों का आवागमन नहीं सा था, गयसुकुमालं अणगारं = गजसुकुमाल मुनि को, पासइ, पासित्ता तं = देखता है, देखते ही सोमिल को, वेरं सरइ = पूर्व जन्म का वैर जागृत हो गया, सरित्ता आसुरुत्ते एवं वयासी- = वैर जागृत होते ही तत्काल, क्रोधित होता हुआ इस प्रकार बोला, एस णं भो ! से गयसुकुमाले = अरे ! यह वह गजसुकुमाल, कुमारे अपत्थिय जाव = कुमार अप्रार्थनीय मृत्यु को चाहने, परिवज्जिए = वाला यावत् लज्जा-रहित है, जे णं मम धूयं, सोमसिरीए = जिसने मेरी पुत्री व सोमश्री, भारियाए अत्तयं सोमं दारियं = ब्राह्मणी की आत्मजा सोमा कन्या को, अदिट्ठदोसपइयं कालवत्तिणीं = जो कि दोष रहित और अवस्था प्राप्त है, विप्पजहित्ता मुण्डे जाव पव्वइए = छोड़कर मुंडित हो साधु बन गया है। भावार्थ-इधर ऐसा हुआ कि सोमिल ब्राह्मण समिधा (यज्ञ की लकड़ी) के लिए द्वारिका नगरी के बाहर पूर्व की ओर गजसुकुमाल अणगार के श्मशान भूमि में जाने से पूर्व ही निकला। ___ वह समिधा, दर्भ, कुश डाभ एवं अग्र भाग में मुड़े हुए पत्तों को लेता है, उन्हें लेकर वहाँ से अपने घर की तरफ लौटता है। लौटते समय महाकाल श्मशान के निकट (न अति दूर न अति सन्निकट) से जाते हुए संध्या काल की वेला में, जबकि मनुष्यों का गमनागमन नहीं के समान हो गया था, उसने गजसुकुमाल मुनि को वहाँ ध्यानस्थ खड़े देखा। उन्हें देखते ही सोमिल के हृदय में पूर्व भव का वैर जागृत हुआ । पूर्व जन्म के वैर का स्मरण हुआ। पूर्व जन्म के वैर का स्मरण करके वह क्रोध से तमतमा उठता है और इस प्रकार बुदबुदाता है-अरे ! यह तो वही अप्रार्थनीय का प्रार्थी (मृत्यु की इच्छा करने वाला) यावत् निर्लज्ज एवं श्री, कान्ति आदि से हीन
SR No.034358
Book TitleAntgada Dasanga Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_antkrutdasha
File Size2 MB
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