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________________ { 34 [अंतगडदसासूत्र तीसरा संघाड़ा, उच्चणीय जाव पडिलाभेइ = आया यावत् उसे भी प्रतिलाभ देती है।, पडिलाभित्ता एवं वयासी- = उसको प्रतिलाभ देकर इस प्रकार बोली-, किण्णं देवाणुप्पिया! = हे देवानुप्रिय ! क्या, कण्हस्स वासुदेवस्स इमीसे = कृष्ण वासुदेव की इस, बारवईए नयरीए = द्वारावती नगरी में, दुवालसजोयण-आयामाए = बारह योजन लम्बाई वाली, नवजोयण-वित्थिण्णाए = नौ योजन विस्तार वाली, पच्चक्खं देवलोग-भूयाए = प्रत्यक्ष देवलोक रूपिणी में, समणा णिग्गंथा उच्चणीयमज्झिमाई = श्रमण निर्ग्रन्थ ऊँच-नीच व मध्यम, कुलाई घरसमुदाणस्स = कुलों में गृह समुदाय की, भिक्खायरियाए अडमाणा = भिक्षाचर्या के लिए भ्रमण करते हुए, भत्तपाणं नो लभंति ? = आहार पानी नहीं प्राप्त करते हैं ? जण्णं ताई चेव कुलाई = जिससे कि उन्हीं कुलों में, भत्तपाणाए भुज्जो भुज्जो = आहार पानी के लिए बार-बार, अणुप्पविसंति = प्रवेश करते हैं। __ भावार्थ-प्रथम संघाटक के लौट जाने के पश्चात् उन छ: सहोदर साधुओं के तीन संघाटकों में से दूसरा संघाटक भी द्वारिका के उच्च-नीच-मध्यम आदि कुलों में भिक्षार्थ भ्रमण करता हुआ महारानी देवकी के प्रासाद में आया । देवकी ने प्रथम संघाटक की भाँति दूसरे मुनि संघाटक को भी हृष्टतुष्ट हो सिंह केसर मोदकों का प्रतिलाभ देकर यावत् विसर्जित किया। द्वितीय संघाटक के लौट जाने के अनन्तर उन मुनियों का तीसरा संघाड़ा भी द्वारिका नगरी में ऊँच-नीच-मध्यम कुलों में भिक्षार्थ भ्रमण करता हुआ महारानी देवकी के प्रासाद में प्रविष्ट हुआ । देवकी ने पहले आये दो संघाटकों के समान उस तीसरे संघाटक को भी हृष्ट-तुष्ट हो यावत् सिंह केसर मोदकों का प्रतिलाभ दिया। प्रतिलाभ देकर महारानी देवकी इस प्रकार बोली-हे देवानुप्रियो ! क्या कृष्ण-वासुदेव की इस बारह योजन लम्बी, नौ योजन चौड़ी प्रत्यक्ष स्वर्गपुरी के समान द्वारिका नगरी में श्रमण-निर्ग्रन्थ उच्च-नीच एवं मध्यम कुलों के गृह समुदाय से, भिक्षार्थ भ्रमण करते हुए आहार-पानी नहीं प्राप्त करते, जिससे कि उन्हें (श्रमण-निर्ग्रन्थों को) आहार-पानी के लिये जिन कुलों में पहले आ चुके हैं, उन्हीं कुलों में पुन: पुन: आना पड़ता है?" टिप्पणी-देवकी के द्वारा भगवान नेमिनाथ के छ: मुनियों के तीन संघाड़ों को प्रतिलाभ देकर तीसरी बार आए हुए संघाड़े से प्रतिलाभ के बाद पृच्छा की गई-क्या श्री कृष्ण की इस देव-निर्मित द्वारिका नगरी में श्रमण निर्ग्रन्थों को गोचरी के लिए विविध कुलों में घूमते हुए आहार-पानी प्राप्त नहीं होता, जिससे कि उनको एक ही कुल में आहार-पानी के लिये बार-बार आना पड़ता है ? चरितानुवाद के इस प्रसंग से निम्न फलितार्थ निकलते 1. उस समय के मुनियों का तीसरे प्रहर में ही एक बार भिक्षा जाना । 2. साधु मण्डल में 2-2 का संघाड़ा बनाकर भिक्षा की जाती थी। आज की तरह सब की एक गोचरी नहीं होती थी। 3. जिस घर में एक संघाड़ा होकर गया है, वहाँ-पीछे घूमते-घूमते दूसरा संघाड़ा भी चला जाता था। 4. श्रमण-निर्ग्रन्थ बिना कारण दूसरी-तीसरी बार घरों में नहीं जाते थे। 5. संभावित भिक्षाकाल में यदि दूसरी-तीसरी बार में भी कोई साधु मधुकरी वृत्ति से भिक्षा करने आवे तो श्रावक निर्दोष आहार से उनको महारानी देवकी की तरह प्रतिलाभ दें, यह गृहस्थ का धर्म है।
SR No.034358
Book TitleAntgada Dasanga Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_antkrutdasha
File Size2 MB
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