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________________ अष्टम वर्ग- पंचम अध्ययन ] 199} सुकृष्णा आर्या ने सूत्रोक्त विधि के अनुसार इसी 'सप्त सप्तमिका' भिक्षु प्रतिमा तप की सम्यग् आराधना की। इसमें आहार -पानी की सम्मिलित रूप से प्रथम सप्ताह में सात दत्तियाँ हुईं, दूसरे सप्ताह में चौदह, तीसरे सप्ताह में इक्कीस, चौथे में अट्ठाईस, पाँचवें में पैंतीस, छठे में बयालीस, और सातवें सप्ताह में उनपचास दत्तियाँ हुईं। इस प्रकार सभी मिलाकर कुल एक सौ छियानवे (196) दत्तियाँ हुईं। इस तरह सूत्रानुसार इस प्रतिमा का आराधन करके सुकृष्णा सती आर्या चन्दनबाला के पास आई और उन्हें वन्दना नमस्कार करके इस प्रकार बोली- “हे आर्ये ! आपकी आज्ञा हो तो में 'अष्ट अष्टमिका' भिक्षु प्रतिमा का तप अंगीकार करके विचरूँ ।” आर्य चन्दना-“हे देवानुप्रिये ! जैसा तुम्हें सुख हो वैसा करो । धर्म कार्य में प्रमाद मत करो। " फिर वह सुकृष्णा आर्या आर्य चन्दना आर्या की आज्ञा प्राप्त होने पर 'अष्ट अष्टमिका' भिक्षु प्रतिमा अंगीकार करके विचरने लगी । इस तप में प्रथम अष्टक में एक-एक दत्ति भोजन की और एक-एक दत्ति पानी की ग्रहण की है यावत् इसी क्रम से दूसरे अष्टक में प्रतिदिन दो दत्तियाँ आहार की और दो ही दत्तियाँ पानी की ली जाती हैं, इस तप में प्रथम नवक में प्रतिदिन वे एक-एक दत्ति भोजन की और एक-एक पानी की ग्रहण करतीं यावत् क्रम से बढ़ते बढ़ते नवमें नवक में प्रतिदिन नौ दत्तियाँ भोजन की और नव ही दत्तियाँ पानी की ग्रहण करतीं । इस प्रकार इक्कासी दिनों में चार सौ पाँच भिक्षा दत्तियों से 'नवनवमिका' भिक्षु प्रतिमा पूरी हुई, जिसकी सूत्रोक्त विधि के अनुसार सम्यग् आराधना करती हुई आर्या सुकृष्णा विचरने लगी । इसके पश्चात् पूर्व की तरह यावत् अपनी गुरुणीजी की आज्ञा प्राप्त कर सुकृष्णा आर्या ने 'दश दशमिका' भिक्षु प्रतिमा रूप तप स्वीकार किया। इस तप के आराधना काल में वे प्रथम दशक में प्रतिदिन एक एक दत्ति भोजन की और एक एक दत्ति पानी की यावत् इसी क्रम से बढ़ाते बढ़ाते दसवें दशक में प्रतिदिन दस दत्तियाँ भोजन की और दस ही दत्तियाँ पानी की ग्रहण करतीं । इस प्रकार उन आर्या सुकृष्णा ने इस 'दश दशमिका' भिक्षु प्रतिमा रूप तप को एक सौ रात दिनों में पाँच सौ पचास भिक्षा दत्तियों से पूर्ण किया। सूत्रानुसार इस 'दश दशमिका' भिक्षु प्रतिमा तप की आराधना करके बहुत से यावत् मास, अर्द्धमास आदि विविध तप-कर्म से आर्या सुकृष्णा अपनी आत्मा को भावित करती हुई विचरने लगीं। इस तरह वह सुकृष्णा आर्या उन उदार श्रेष्ठ तपों की आराधना करते-करते शरीर से अत्यन्त कृश हो गयीं एवं अन्त में संलेखना संथारा करके सम्पूर्ण कर्मों का क्षय कर वे सिद्ध-बुद्ध एवं मुक्त हो गयीं । ।। इइ पंचममज्झयणं-पंचम अध्ययन समाप्त ॥
SR No.034358
Book TitleAntgada Dasanga Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_antkrutdasha
File Size2 MB
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