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________________ 183} अष्टम वर्ग - प्रथम अध्ययन ] करेइ, करित्ता = बेले का तप किया, करके, विगइवज्जं पारेइ, पारित्ता = विगयरहित पारणा किया । एवं जहा पढमाए, = शेष प्रथम परिपाटी के समान, नवरं सव्वपारणए विगइवज्ज = विशेष यह कि सब पारणे विगय रहित, पारेइ जाव आराहिया भवइ = पालते यावत् आराधते हैं। तयाणंतरं च णं तच्चाए परिवाडीए = तदनन्तर वह तृतीय परिपाटी में, चउत्थं करेड़, करित्ता = उपवास करती, करके, अलेवाडं पारेइ = लेपरहित पारणा करती है। सेसं तहेव = शेष पहले की तरह । एवं चउत्था परिवाडी = इसी प्रकार चौथी परिपाटी में, नवरं सव्वपारणए आयंबिलं पारेइ = विशेष सब पारणे आयंबिल से करती है।, सेसं तं चेव = शेष उसी प्रकार । पढमम्मि सव्वकामपारणयं = पहली परिपाटी में सर्वकामगुणयुक्त पारणा, बीइयाए विगइवज्जं = द्वितीय में विगयरहित, तइयम्मि अलेवाडं = तीसरी में लेपरहित और, आयंबिलओ चउत्थम्मि = चौथी में आयंबिल से पारणा किया । तएणंसा काली अज्जा = इस प्रकार उस काली आर्या ने, रयणावली तवोकम्मं पंचहिं संवच्छरेहिं = रत्नावली तप कर्म की पाँच वर्ष, दोहि य मासेहिं अट्ठावीसाए य दिवसेहिं = दो मास व अट्ठाईस दिनों में, अहासुत्तं = सूत्रानुसार, जाव आराहित्ता जेणेव = यावत् आराधना करके जहाँ, अज्जचंदणा अज्जा तेणेव = आर्यचंदना आर्या थी वहाँ, उवागया, उवागच्छित्ता = वह आई, आकर, अज्जचंदणं, वंदइ नमसइ = आर्यचंदना को उसने वन्दना-नमस्कार किया, वंदित्ता नमंसित्ता = वन्दन-नमस्कार करके, बहूहिं चउत्थछट्टट्ठम- = बहुत से उपवास, बेले, तेले, दसमदुवालसेहिं तवोकम्मेहिं = चौले, पचोले आदि तप से, अप्पाणं भावेमाणी विहरइ = आत्मा को भावित करती हुई विचरने लगी।।5।। भावार्थ-इसके पश्चात् दूसरी परिपाटी में काली आर्या ने उपवास किया और विगयरहित पारणा किया, बेला किया और विगयरहित पारणा किया। इस प्रकार यह भी पहली परिपाटी के समान है। इसमें केवल यह विशेष (अन्तर) है कि पारणा विगयरहित होता है । इस प्रकार सूत्रानुसार इस दूसरी परिपाटी का आराधन किया जाता है। इसके पश्चात् तीसरी परिपाटी में वह काली आर्या उपवास करती है और लेप रहित पारणा करती है। शेष पहले की तरह है। ऐसे ही काली आर्या ने चौथी परिपाटी की आराधना की। इसमें विशेषता यह है कि सब पारणे आयंबिल से करती है। शेष उसी प्रकार है। प्रथम परिपाटी में सर्वकामगुण एवं दूसरी में विगयरहित पारणा किया। तीसरी में लेप रहित और चौथी परिपाटी में आयंबिल से पारणा किया। इस भाँति काली आर्या ने रत्नावली तप की पाँच वर्ष दो महीने और अट्ठावीस दिनों में सूत्रानुसार यावत् आराधना पूर्ण करके जहाँ आर्या चन्दना थी वहाँ आई और आर्या चन्दना को वंदना नमस्कार किया। फिर बहुत से उपवास, बेले, तेले, चार पाँच आदि तप से अपनी आत्मा को भावित करती हुई विचरने लगी।।5।।
SR No.034358
Book TitleAntgada Dasanga Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_antkrutdasha
File Size2 MB
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