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________________ {XVII} सेवा-धर्म जिस प्रकार श्रमण साधक के लिये समिति-गुप्ति का पालन करना प्रधान धर्म है, उसी प्रकार गृहस्थ श्रावक के लिये सेवा-धर्म प्रधान है। 'अंतगडदसा' सूत्र में आया है कि श्रीकृष्ण श्रमण धर्म को श्रेष्ठ समझते हुए भी संसार-त्याग करने में समर्थ नहीं हुए। अत: उन्होंने सेवा कार्य को ही जीवन का उद्देश्य बनाया । उन्होंने अपनी माता देवकी के पुत्र-पालन की भावना को पूर्ण कर मातृसेवा का आदर्श प्रस्तुत किया। श्री कृष्ण अर्द्धभरत के स्वामी (राजा) थे तथा राजकीय ठाट-बाट के साथ भगवान श्री अरिष्टनेमि के दर्शनार्थ जा रहे थे । मार्ग में एक वृद्ध पुरुष को देखा जो जरा से जर्जरित, क्लान्त व थका हुआ था । वह अपने घर के बाहर पड़े ईंटों के विशाल ढेर में से एक-एक ईंट उठाकर घर में रख रहा था। वासुदेव श्री कृष्ण ने उस पुरुष के प्रति करुणार्द्र होकर उस पर अनुकम्पा की और उस ढेर में से एक ईंट स्वयं ने उठाई और उसके घर में रख दी। इससे प्रेरित हो उनके साथ के सैकड़ों पुरुषों ने एक-एक ईंट उठाकर सम्पूर्ण ढेर को घर में पहुंचा दिया। इससे समाज-सेवा का महत्त्व तो प्रकट होता ही है, साथ ही राजा के द्वारा प्रजा के प्रति वात्सल्य सेवाभाव रूप कर्तव्य का भी बोध होता है। उन्होंने अपने लघु भ्राता श्री गजसुकुमाल का राज्याभिषेक कर भ्रातृ-प्रेम का भी उत्कृष्ट आदर्श प्रस्तुत किया। इतना ही नहीं उन्होंने राज्य में उद्घोषणा कराई कि कोई भी व्यक्ति जो संयम धारण करना चाहता है, वह संयम ले। उसके आश्रित परिवार का भार उठाने का दायित्व राजा अपने पर लेता है। इससे उनका वात्सल्य धर्म प्रकट होता है। इस प्रकार परिवार, समाज, धर्म आदि सभी क्षेत्रों में उन्होंने सेवा धर्म के महत्त्व को प्रकट किया। दर्शनाराधना सेठ सुदर्शन ने सुना कि भगवान महावीर नगर के बाहर उद्यान में पधारे हैं तो सेठ सुदर्शन अर्जुनमाली के उपद्रव की परवाह न करते हुए भगवान महावीर के दर्शनार्थ नगर से बाहर निकले और मृत्यु का खतरा उठाया । इस प्रकार धर्म पर दृढ़ आस्था रूप आराधना का सुन्दर रूप प्रस्तुत कर सेठ सुदर्शन ने अपना सुदर्शन नाम सार्थक किया। ज्ञानाराधना गौतमकुमार, समुद्रकुमार आदि मुनियों ने ग्यारह अंगों का, जालि-मयालि आदि मुनियों ने चौदह पूर्वो का अध्ययन किया । इस प्रकार अनेक महापुरुष ज्ञानाराधना के साथ तप-संयम का पालन कर सिद्ध-बुद्ध मुक्त हुए। चारित्राराधना यह आगम चारित्राराधना से पूरा भरा है। सभी साधकों ने गृहस्थावस्था का त्याग कर संयम ग्रहण किया तथा समिति-गुप्ति का पालन कर चारित्र धर्म की आराधना की: कारण कि. चारित्राराधना सभी
SR No.034358
Book TitleAntgada Dasanga Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_antkrutdasha
File Size2 MB
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