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________________ षष्ठ वर्ग - तृतीय अध्ययन ] 133} महावीर को वन्दन नमस्कार करने हेतु जाऊँ । एवं संपेहेइ, संपेहित्ता जेणेव अम्मापियरो तेणेव = इस प्रकार विचार किया, करके जहाँ उसके माता पिता थे वहाँ, उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल-परिग्गहियं जाव एवं वयासी- = आया, आकर दोनों हाथ जोड़कर यावत् यों कहने लगा-, एवं खलु अम्मयाओ! समणे भगवं महावीरे जाव विहरइ = हे माता पिता ! श्रमण भगवान महावीर यावत् पधारे हैं। तं गच्छामि णं समणं भगवं महावीरं वंदामि नमसामि = इस कारण मैं उनकी सेवा में जाऊँ और उनको वन्दन नमस्कार करूँ, जाव पज्जुवासामि = यावत् सेवा करूँ ऐसी मेरी इच्छा है ।।8।। __ भावार्थ-उस राजगृह नगर में सुदर्शन नाम के एक धनाढ्य सेठ रहते थे, जो अपराभूत थे। श्रमणोपासक श्रावक थे और जीव अजीव आदि नवतत्त्वों के ज्ञाता थे। यावत् श्रमणों को प्रतिलाभ देने वाले थे। उस काल उस समय श्रमण भगवान महावीर धर्मोपदेश देते हुए राजगृह पधारे और बाहर उद्यान में ठहरे । उनके पधारने का समाचार सुनकर राजगृह नगर के शृंगाटक, राजमार्ग आदि स्थानों में बहुत से नागरिक लोग परस्पर इस प्रकार वार्तालाप करने लगे-हे देवानुप्रियों! श्रमण भगवान महावीर स्वामी यहाँ पधारे हैं, जिनके नाम गोत्र के सुनने से भी महाफल होता है तो उनके दर्शन करने, वाणी सुनने तथा उनके द्वारा प्ररूपित धर्म का विपुल अर्थ ग्रहण करने से जो फल होता है उसका तो कहना ही क्या! वह तो अवर्णनीय है। इस प्रकार बहुत से नागरिकों के मुख से भगवान के पधारने का समाचार सुनकर उस सुदर्शन सेठ के मन में इस प्रकार विचार उत्पन्न हुआ “निश्चय ही! श्रमण भगवान महावीर नगर में पधारे हैं और बाहर गुणशीलक उद्यान में विराजमान हैं, इसलिये मैं जाऊँ और उन श्रमण भगवान महावीर को वंदन-नमस्कार करूँ।" ऐसा सोचकर वे अपने माता-पिता के पास आये और हाथ जोड़कर इस प्रकार बोले-“निश्चय ही हे माता-पिता! श्रमण भगवान महावीर स्वामी नगर के बाहर उद्यान में विराज रहे हैं। अत: मैं चाहता हूँ कि उनकी सेवा में जाऊँ और उन्हें वंदन-नमस्कार करूँ।" सूत्र 9 मूल तए णं तं सुदंसणं सेटिं अम्मापियरो एवं वयासी-एवं खलु पुत्ता! अज्जुणए मालागारे जाव घाएमाणे विहरइ, तं मा णं तुमं पुत्ता ! समणं भगवं महावीरं वंदए निगच्छाहि, मा णं तव सरीरयस्स वावत्ती भविस्सइ। तुमं णं इहगए चेव समणं भगवं महावीरं वंदाहि नमसाहि। तए णं सुदंसणे सेट्ठी अम्मापियरं एवं वयासी-किण्णं अहं अम्मयाओ! समणं भगवं महावीरं इहमागयं इह पत्तं इह समोसढं इह
SR No.034358
Book TitleAntgada Dasanga Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_antkrutdasha
File Size2 MB
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