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________________ {XV} 9. अनुत्तरौपपातिक, 10. प्रश्न व्याकरण, और 11. विपाक सूत्र । इनमें अन्तकृद्दशा का आठवाँ स्थान है। उपांग, मूल, छेद और प्रकीर्ण सूत्रों की अपेक्षा प्रधान होने से इनको अंग शास्त्र माना गया है। नाम और महत्त्व प्रस्तुत शास्त्र "अंतगडदसा' के नाम की सार्थकता स्वयं इसके अध्ययन से विदित हो जाती है। यद्यपि मोक्षगामी पुरुषों की गौरव गाथा तो अन्य शास्त्रों में भी प्राप्त होती है, पर इस शास्त्र में केवल उन्हीं सन्त सतियों का जीवन-परिचय है, जिन्होंने इसी भव से जन्म-जरा-मरण रूप भवचक्र का अन्त कर दिया अथवा अष्टविध कर्मों का अन्त कर जो सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो गए। सदा के लिए संसार-लीला का अन्त करने वाले (अंतगड) जीवों की साधना (दशा) का वर्णन करने से ही इसका 'अंतगडदसाओ' नाम रखा गया है। इसके पठन-पाठन और मनन से हर भव्य जीव को अन्त-क्रिया की प्रेरणा मिलती है, अत: यह परम कल्याणकारी ग्रन्थ है। उपासक दशा में एक भव से मोक्ष जाने वाले श्रमणोपासकों का वर्णन है, किन्तु इस आठवें अंग 'अन्तकृद्दशा' में उसी जन्म में सिद्ध गति प्राप्त करने वाले उत्तम श्रमणों का वर्णन है। अत: परम-मंगलमय है और इसीलिये लोक-जीवन में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है। वर्णन-शैली ग्रन्थों की रोचकता को उनकी वर्णन-शैली से भी आँकने की प्रथा है। अच्छी से अच्छी बातें भी अरोचक ढंग से कहने पर उतना असर नहीं डालती जितना कि एक साधारण बात भी सुन्दर व व्यवस्थित ढंग से कहने पर श्रोता के चित्त को आकृष्ट कर लेती है। प्रस्तुत ग्रन्थ की वर्णन शैली भी व्यवस्थित है । इसमें प्रत्येक साधक के नगर, उद्यान, चैत्य-व्यंतरायतन, राजा, माता-पिता, धर्माचार्य, धर्मकथा, इहलोक एवं परलोक की ऋद्धि, पाणिग्रहण, प्रीतिदान, भोगों का परित्याग, प्रव्रज्या, दीक्षाकाल, श्रुतग्रहण, तपोपधान, संलेखना और अन्तक्रिया स्थान का उल्लेख किया गया है । 'अंतकद्दशा' में वर्णित साधक पात्रों के परिचय से प्रकट होता है कि श्रमण भगवान महावीर के शासन में विभिन्न जाति एवं श्रेणि के व्यक्तियों को साधना में समान अधिकार प्राप्त था । एक ओर जहाँ बीसियों राजपुत्र-राजरानी और गाथापति साधना-पथ में चरण से चरण मिला कर चल रहे हैं, दूसरी ओर वहीं कतिपय उपेक्षित वर्ग वाले और मनुष्यघाती तक भी ससम्मान इस साधना क्षेत्र में आकर समान रूप से आगे बढ़ रहे हैं । कर्मक्षय कर सिद्ध-बुद्ध एवं मुक्त होने में किसी को कोई रुकावट नहीं, बाधा नहीं । 'हरि को भजे सो हरि को होई' वाली लौकिक उक्ति अक्षरश: चरितार्थ हुई है। कितनी समानता, समता और आत्मीयता भरी थी, उन सूत्रकारों के मन में ? वय की दृष्टि से अतिमुक्त जैसे बाल मुनि और गज सुकुमार जैसे राजप्रासाद के दुलारे गिने जाने वाले भी इस क्षेत्र में उतर कर सिद्धि
SR No.034358
Book TitleAntgada Dasanga Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_antkrutdasha
File Size2 MB
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