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________________ तृतीय वर्ग - आठवाँ अध्ययन ] 77} पूर्व का वैर-भाव उसमें जागृत हुआ। वह क्रोध एवं वैर से प्रेरित होकर पास के तालाब से गीली मिट्टी लाया और उन गजसुकुमाल अणगार के सिर पर चारों ओर उस मिट्टी से पाल बाँधी। फिर पास में ही जलती हुई किसी की चिता से धधकते हुए लाल-लाल अंगारों को किसी खप्पर में या किसी फूटे हुए मिट्टी के बर्तन के टुकड़े में भरकर उन अणगार के सिर पर बाँधी हुई उस मिट्टी की पाल में डाल दिया। इससे मुनि को असह्य वेदना हुई । परन्तु फिर भी उन्होंने मन से भी उस घातक पुरुष के प्रति किंचित् मात्र भी द्वेष भाव नहीं किया। वे समभावपूर्वक उस भयंकर वेदना को सहते रहे और इस तरह अत्यन्त शुभ परिणामों, शुभ भावों एवं शुभ अध्यवसायों से सम्पूर्ण केवल ज्ञान और केवल दर्शन प्राप्त करके सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो गये । इस प्रकार हे कृष्ण ! उन गजसुकुमाल मुनि ने अपना प्रयोजन सिद्ध कर लिया। अपना आत्म- कार्य सिद्ध कर लिया।" यह सुनकर वह कृष्ण वासुदेव भगवान नेमिनाथ को इस प्रकार पूछने लगे- “हे पूज्य ! वह अप्रार्थनीय का प्रार्थी यानी मृत्यु को चाहने वाला यावत् निर्लज्ज पुरुष कौन है जिसने मेरे सहोदर लघुभ्राता गजसुकुमाल मुनि का असमय में ही प्राण-हरण कर लिया ?" तब अर्हत् अरिष्टनेमि कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार बोले-“हे कृष्ण ! तुम उस पुरुष पर द्वेष-रोष मत करो, क्योंकि इस प्रकार उस पुरुष ने सुनिश्चितरूपेण गजसुकुमाल मुनि को अपना आत्म-कार्य, अपना प्रयोजन सिद्ध करने में सहायता प्रदान की है।" सूत्र 27 कहण्णं भंते ! तेणं पुरिसेणं गयसुकुमालस्स साहिज्जे दिण्णे ? तए णं अरहा अरिट्ठणेमी कण्हं वासुदेवं एवम् वयासी-से नूणं कण्हा ! तुमं ममं पायवंदए हव्वमागच्छमाणे बारवईए नयरीए एगं पुरिसं पाससि जाव अणुप्पवेसिए। जहा णं कण्हा तुमं तस्स पुरिसस्स साहिज्जे दिण्णे। एवमेव कण्हा ! तेणं पुरिसेणं गयसुकुमालस्स अणगारस्स अणेगभवसयसहस्स-संचियं कम्मं उदीरेमाणेणं बहुकम्मणिज्जरहूं साहिज्जे दिण्णे। तए णं से कण्हे वासुदेवे अरहं अरिट्ठणेमिं एवं वयासी-से णं भंते ! पुरिसे मए कहं जाणियव्वे ? तए णं अरहा अरिट्ठणेमी कण्हं वासुदेवं एवं वयासी-"जे णं कण्हा ! तुमं बारवईए नयरीए अणुप्पविसमाणं पासित्ता ठियए चेव ठिइभेएणं कालं करिस्सइ तए णं तुमं जाणिज्जासि एस णं से पुरिसे।" मूल
SR No.034358
Book TitleAntgada Dasanga Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_antkrutdasha
File Size2 MB
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