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________________ चतुर्थ अध्ययन प्रतिक्रमण ] 39} = : पाँच प्रकार की काई (पाँच रंग की काई), दग = सचित्त पानी, मट्टी = सचित्त मिट्टी, मक्कडा संताणा = मकड़ी के जाले को, संकमणे = कुचल जाने से, जे मे जीवा विराहिया = जो मेरे द्वारा जीवों की विराधना हुई अथवा जो मैंने जीवों की विराधना की, एगिंदिया = (उन) एक इन्द्रिय वाले, बेइंदिया = दो इन्द्रियों वाले, तेइंदिया = तीन इन्द्रियों वाले, चउरिंदिया = चार इन्द्रियों वाले, पंचिंदिया = पाँच इन्द्रियों वाले जीवों को, अभिहया सामने आते हुए को ठेस पहुँचाई हो, वत्तिया = धूल आदि से ढँके हों, लेसिया = भूमि आदि पर रगड़े- मसले हों, संघाइया = इकट्ठे किये हों, संघट्टिया = पीड़ा पहुँचे जैसे गाढ़े छुए हों, परियाविया = परिताप (कष्ट) पहुँचाया हो, किलामिया = खेद उपजाया हो, उद्दविया = हैरान किया हो, ठाणाओ ठाणं संकामिया = एक स्थान से दूसरे स्थान पर रखे हों, जीवियाओ ववरोविया = जीवन (प्राणों) से रहित किया हो, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं = वह मेरा पाप मिथ्या हो (निष्फल हो) । = भावार्थ-मैं प्रतिक्रमण करता हूँ। मार्ग में चलते हुये अथवा संयमधर्म पालन करते हुये लापरवाही अथवा असावधानी के कारण किसी भी जीव की किसी प्रकार की विराधना अर्थात् हिंसा हुई हो तो मैं उस पाप से निवृत्त होना चाहता हूँ। स्वाध्याय आदि के लिए उपाश्रय से बाहर जाने में और फिर लौटकर उपाश्रय आने में अथवा मार्ग में कहीं गमनागमन करते हुये प्राणियों को पैरों के नीचे या किसी अन्य प्रकार से कुचला हो, सचित्त जौ, गेहूँ या किसी भी तरह के बीजों को कुचला हो, घास, अंकुर आदि हरित वनस्पति को मसला हो, दबाया हो तो मेरा वह सब अतिचारजन्य पाप मिथ्या हो-निष्फल हो तथा एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय तक किसी भी जीव की विराधना-हिंसा की हो, सामने आते हुये को रोका हो, धुल आदि से ढँका हो, जमीन पर या आपस में मसला हो, एकत्रित करके ऊपर नीचे ढेर किया हो, असावधानी से क्लेशजनक रीति से हुआ हो, जीवन से रहित किया हो, तो मेरा वह सब पाप मिथ्या हो-निष्फल हो। विवेचन - आचार्य नमि ने प्रतिक्रमण सूत्र की वृत्ति में ऐर्यापथिकी शब्द का अर्थ इस प्रकार किया है-‘ईरणं-ईर्यागमनमित्यर्थः, तत् प्रधानः पन्था ईर्यापथस्तत्र भवा विराधना ऐर्यापथिकी ।' अर्थात् ईर्या का अर्थ गमन है। गमन युक्त जो पथ-मार्ग है वह ईर्यापथ कहलाता है। ईर्यापथ में होने वाली क्रिया (विराधना ) ऐर्यापथिकी होती है। आचार्य श्री हेमचन्द्र एक और भी अर्थ करते हैं- 'ईर्यापथः साध्वाचारः तत्र भवा ऐर्यापथिकी' अर्थात् ईर्यापथ का अर्थ श्रेष्ठ आचार और उसमें गमनागमनादि के कारण असावधानी से जो दूषण रूप क्रिया हो जाती है उसे ऐर्यापथिकी कहते हैं। ऐर्यापथिकी सूत्र जहाँ एक ओर विनय - भावना का स्वतः स्फूर्त रूप प्रकट करता है, वहाँ दूसरी ओर जैन धर्म की विवेक प्रधान सूक्ष्म-भाव-स्पंदित दयालुता की पवित्र भावना से ओत-प्रोत भगवती अहिंसा का
SR No.034357
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages292
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size2 MB
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