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________________ चतुर्थ अध्ययन प्रतिक्रमण ] 37} = = मंगल है, चत्तारि लोगुत्तमा चार लोक में उत्तम हैं, अरिहंता लोगुत्तमा अरिहन्त लोक में उत्तम हैं, सिद्धा लोगुत्तमा = सिद्ध लोक में उत्तम हैं, साहू लोगुत्तमा साधु लोक में उत्तम हैं, केवलि पण्णत्तो धम्मो = केवली प्ररूपित धर्म, लोगुत्तमो = लोक में उत्तम है, चत्तारि सरणं पवज्जामि = चार शरणों को ग्रहण करता हूँ, अरिहंते सरणं पवज्जामि = अरिहंत भगवान की शरण ग्रहण करता हूँ, सिद्धे सरणं पवज्जामि = सिद्ध भगवान की शरण ग्रहण करता हूँ, साहू सरणं पवज्जामि साधुओं की शरण ग्रहण करता हूँ, केवलिपण्णत्तं धम्मं केवली प्ररूपित दया धर्म की, सरणं पवज्जामि शरण ग्रहण करता हूँ। = = - = - भावार्थ-संसार में चार मंगल हैं- (1) अरिहंत भगवान मंगल हैं। (2) सिद्ध भगवान मंगल हैं। (3) साधु-महाराज मंगल हैं। (4) सर्वज्ञप्ररूपित धर्म मंगल है। संसार में चार उत्तम अर्थात् सर्वश्रेष्ठ हैं - (1) अरिहंत भगवान लोक में उत्तम हैं। (2) सिद्ध भगवान लोक में उत्तम हैं। (3) साधु - महाराज लोक में उत्तम हैं। (4) सर्वज्ञप्ररूपित धर्म लोक में उत्तम हैं। मैं चार की शरण स्वीकार करता हूँ- (1) अरिहंतों की शरण स्वीकार करता हूँ (2) सिद्धों की शरण स्वीकार करता हूँ, (3) साधुओं की शरण स्वीकार करता हूँ, (4) सर्वज्ञप्ररूपित धर्म की शरण स्वीकार करता हूँ। विवेचन - प्रस्तुत मंगल चतुष्टयी में प्रथम के दो मंगल आदर्श रूप हैं। हमारे जीवन का अन्तिम लक्ष्य क्रमश: अरिहन्त और सिद्ध भगवान हैं। अरिहन्त पद में जीवन को सर्वथा राग-द्वेष से रहित बनाया जाता है और सिद्ध पद में जीवन की पूर्णता को, सिद्धता को प्राप्त कर लिया जाता है। अरिहन्त, सिद्ध का स्मरण करते ही हमें अपने गन्तव्य लक्ष्य का ध्यान आ जाता है। I तब साधु मंगल- हमारे जीवन का अनुभवी साथी एवं मार्ग-प्रदर्शक है । आध्यात्मिक क्षेत्र में आज सीधा प्रकाश इन्हीं से मिलता है। हमारे सामने जबकि अरिहन्त सिद्ध पूर्ण सिद्धता के आदर्श मंगल हैं, साधु साधकता के आदर्श मंगल हैं। साधु पद में आचार्य, उपाध्याय और मुनि तीनों का ग्रहण होता है। धर्म मंगल-सबसे अन्त में है । परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि वह गौण मंगल है। यदि वास्तविकता को देखा जाय तो पूर्वोक्त तीनों मंगलों का निर्माण धर्म के द्वारा ही होता है। बिना धर्म के साधु क्या, और बिना साधना किए अरिहन्त और सिद्ध की सिद्धता क्या ? सूत्रकार ने अन्त में धर्म का उल्लेख करके इसी सिद्धान्त पर प्रकाश डाला है कि धर्म ही सब मंगलों का मूल है। अनन्त काल से भटकती हुई भव्य आत्माओं को उत्थान के पथ पर ले जाने वाले ये ही चार उत्तम हैं । आत्मजागृति के क्षेत्र में हम इनकी दूसरी उपमा नहीं पाते। आकाश की उपमा देने के लिए क्या कोई दूसरा आकाश है? समुद्र की उपमा बताने के लिए क्या कोई दूसरा जलाशय है ? अखिल त्रिलोकी में उत्तमता की शोध करते हुए हमारे पूर्व महर्षियों को ये चार ही उत्तम मंगल मिले।
SR No.034357
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages292
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size2 MB
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