SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ { 2 [आवश्यक सूत्र 'गु' शब्द अन्धकार का वाचक है 'रु' शब्द का अर्थ है-रोकने वाला' आशय यह है कि जो अज्ञान रूपी अन्धकार को रोके, नष्ट करे उसको गुरु कहते हैं। वंदामि-वचन से स्तुति करना। नमंसामि-उपास्य महापुरुष को भगवत्स्वरूप समझकर अपने मस्तक को झुकाना अर्थात् काया से नमस्कार करना। सक्कारेमि-मन से आदर करना। सम्माणेमि-जब कभी अवसर मिले दर्शन कर पर्युपासना करना। कल्लाणं-'कल्ये प्रात:काले अण्यते भण्यते इति कल्याणम्।' अमरकोष 1/4/25 कल्य' का अर्थ प्रात:काल है और 'अण' का अर्थ है बोलना । अत: अर्थ हुआ प्रातः स्मरणीय । आचार्य हेमचन्द्र अर्थ करते हैं कल्य-नीरुजत्वमणतीति' अर्थात् कल्य का अर्थ है नीरोगता-स्वस्थता । जो मनुष्य को नीरोगता प्रदान करता है वह कल्याण है। ‘कल्योऽत्यन्तनीरुक्तया मोक्षस्तमाणयति प्रापयतीति कल्याण: मुक्ति हेतुः' यहाँ कल्य का अर्थ है मोक्ष (कर्म रोग से मुक्त स्वस्थ) जो कल्य-मोक्ष प्राप्त करावे वह कल्याण है। ___ मंगलं-‘मंगतिहितार्थं सर्पति इति मंगलं' जो सब प्राणियों के हित के लिए प्रयत्नशील होता है, वह मंगल है। मंगति दूरं दुष्टमनेन अस्माद् वा इति मंगलं' अर्थात् जिसके द्वारा दुर्देव-दुर्भाग्य आदि सब संकट दूर हो जाते हैं वह मंगल है। अभिधान राजेन्द्र कोष में मंगलं शब्द का अर्थ इस प्रकार किया गया है- 'मंगं हितं लाति ददाति इति मंगलं' अर्थात् जो सब प्राणियों का हित करे अथवा जीव को संसार समुद्र से पार कर दे उसे मंगल कहते हैं। देवयं-दैवत का अर्थ देवता है अर्थात्-'दीव्यन्ते स्वरुपे इति देवा' जो अपने स्वरूप में चमकते हैं अर्थात अपने स्वरूप में रमण करते हैं। वे देव हैं। चेइयं-चैत्य शब्द अनेकार्थक हैं अत: प्रसंगानुसार अर्थ किया जाता है। 'चितीसंज्ञाने' धातु से चैत्य शब्द बनता है, जिसका अर्थ ज्ञान है। 'चित्ताह्लादकत्वाद् वा चैत्या' (ठाणांग वृत्ति 4/2) जिसके देखने से चित्त में आह्लाद उत्पन्न हो वह चैत्य होता है। यह अर्थ भी प्रसंगानुकूल है । गुरुदेव के दर्शन में सभी के हृदय में आह्लाद उत्पन्न होता है । राजप्रश्नीय सूत्र की मलयगिरि कृत टीका में चैत्य शब्द का अर्थ इस प्रकार किया है- चैत्यं सुप्रशस्तमनो-हेतुत्वाद्' मन को सुप्रशस्त, सुन्दर, शान्त एवं पवित्र बनाने वाले । वास्तव में गुरुदेव ही जगत के सब जीवों के कषाय-कलुषित अप्रशस्त मन को प्रशस्त, सुन्दर, स्वच्छ, निर्मल बनाने वाले होते हैं। इसलिए वे चैत्य कहलाते हैं । पूज्य श्री जयमलजी म.सा. ने 'चेइयं' शब्द के 112 अर्थ लिखे हैं। जो कि आगम प्रकाशन समिति ब्यावर द्वारा प्रकाशित औपपातिक सूत्र में हैं। DOD
SR No.034357
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages292
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy