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________________ { xxxi} दशवैकालिक सूत्र में भगवान ने कहा-'बलं थामं च पेहाए 8/35', अपने बल व सामर्थ्य को देखकर ही साधक अपने आपको तप आदि अनुष्ठानों में योजित करे। त्याग से ही शांति है। जितना त्याग, उतनी शांति। त्याग साधक के जीवन को मर्यादित बनाता है। जो कायदे में है वही फायदे में है। त्यागी का मन सधा हुआ रहता है, जिसका मन सधा-उसका जीवन सधा। त्याग से मनोनिग्रह होता है। त्याग से संकल्पशक्ति का विकास होता है, आत्मबल बढ़ता है। त्याग ही धर्म है। जो पराया है उसी का त्याग होता है। कहा है अपना तो ___ “एगो मे सासओ अप्पा नाणदंसण संजुओ। सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोग लक्खणा।।" ज्ञान दर्शन गुणों से युक्त शाश्वत आत्मा हूँ। शेष सभी बाह्य भाव हैं, संयोग लक्षण वाले हैं। जो पर है, उसे त्यागते जाओ, जो बचेगा वह स्वभाव होगा और वही धर्म है। किसी अनुभवी महात्मा से किसी ने पूछा आपने साधना करते हुए क्या पाया? वे बोले-“मैंने कुछ पाया नहीं खोया ही खोया है।” जिज्ञासु बोला-“कैसे?" महात्मा का जवाब था-“पाने योग्य तो भीतर है। जो बाह्य था, विभाव था, विकार था, उसे समाप्त कर दिया, खो दिया तो आनन्दमय निज भाव मिल गया।" अत: सभी साधक त्याग की वृत्ति और प्रवृत्ति वाले बनें। उपसंहार-छह आवश्यकों का सामान्य रूप से यह कथन हुआ। कहने या लिखने को कितना ही हो सकता है। इन छह आवश्यकों का समाचरण हमारे जीवन में सम्यक् प्रकार से हो और हम भी धन्य-धन्य बने, कृतकृत्य बने। श्रमण-श्रमणी वर्ग तो उभयकाल प्रतिक्रमण का आनन्द लेते ही हैं। वे तो सर्योदय से पर्व ही स्वाध्याय व प्रतिक्रमण से अपनी दिनचर्या की शुरुआत करते हैं। आध्यात्मिक लाभ के साथ शारीरिक व मानसिक लाभ सहज हो जाते हैं। विधि सहित, भाव सहित प्रतिक्रमण तन-मन को स्फुरित करने वाला है। इन छह आवश्यकों में स्व-दोष दर्शन, प्रभु भक्ति, गुरु भक्ति, निज-दोष की ग्लानि, कायिक-ममत्व का त्याग व संकल्प शक्ति को विकसित करने का सुंदरतम गुंफन है। इसीलिये ज्ञानियों ने प्रत्येक आत्मार्थी साधक के लिए आवश्यक बताया है। इस अरिहंत भगवंतों की आज्ञा को उभयकाल आराधन कर हर साधक भव पार करें। श्रमण-श्रमणी वर्ग की भाँति श्रावक-श्राविका वर्ग भी उभयकाल आवश्यक करने के अभ्यासी बनें। इससे स्वयं का जीवन तो सुंदर संस्कारित बनेगा ही, पारिवारिक वातावरण में भी समरसता पैदा होगी। सामाजिक स्तर भी ऊँचा उठेगा। जब अन्य धर्म वाले संध्या कर सकते हैं, नमाज पढ़ सकते हैं तो हमें तो सर्वज्ञ भगवान का इतना ऊँचा जिनशासन प्राप्त हुआ, हमें तो उनकी आज्ञा की आराधना करनी ही चाहिए। यह आज्ञा की आराधना हमारे आनन्द-वर्धन के लिए ही है। जिस तरह से पर्युषणों के दिन में और सांवत्सरिक प्रतिक्रमण में आबाल वृद्धों का प्रतिक्रमण करने का
SR No.034357
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages292
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size2 MB
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