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________________ { xxx} रहता है और अव्रत में रहना पाप है। जबकि जिसने नियम लिया है-उसके कदाचित् व्रत में कोई अतिचार लग भी गया तो वह प्रायश्चित्त लेकर शुद्धिकरण कर लेगा। एक दोहे में इस का सुंदर समाधान दिया है चढ़ेगा वह गिरेगा, क्या गिरेगी पिसनहारी। साधु श्रावक के दोष लगे तो, प्रायश्चित्त ले लगा दे कारी।। एक ठाकुर साहब घोड़े की सवारी कर रहे थे, अचानक घोड़े से नीचे गिर पड़े। इस दृश्य को घट्टी पीसने वाली एक बुढ़िया ने देखा। वह बुढ़िया हँसकर कहने लगी मैं तो कभी गिरती ही नहीं हूँ। इसके जवाब में कहा कि घोड़े की सवारी का आनन्द ले रहा हूँ, प्रमादवश नीचे गिर भी गया तो क्या, वापस घोड़े पर बैठ जाऊँगा। तू घोड़े पर बैठी ही नहीं तो गिरेगी भी कहाँ से। (कदाचित् घट्टी पीसते हुए नींद का झोंका आ जाए तो घट्टी के हत्थे पर सिर लग सकता है।) दूसरा दृष्टांत यह दिया कि वस्त्र पहनने वाले का वस्त्र कभी फट भी जााय तो वह उसके ‘कारी' (थिग्गल, पेबंद) लगाकर उसे वापस पहन सकता है। व्रत नहीं लेने वाला तो वस्त्र नहीं पहनने के समान ही है। प्राण जाय पर प्रण न जाय। यह कथन अपेक्षा से ठीक है पर एकांत उचित नहीं है। जिनशासन अनेकांत के सिद्धांत वाला है। जिनशासन में जहाँ व्रत में अडिगता की बात कही है तो पोरसी उपवास आदि प्रत्याख्यानों में अनेक आगारों के साथ सव्वसमाहि वत्तिया गारेणं' (सर्व समाधि प्रत्ययाकार) नाम का एक आगार आता है। साधक समाधि पूर्वक साधना करता है और साधना का ध्येय भी समाधि की वृद्धि ही है। परंतु कभी कोई आकस्मिक विसूचिका, शूल आदि व्याधि-उस समाधि में बाधक बने तो साधक इस 'सव्वसमाहि वत्तियागारेणं' आगार का प्रयोग करता है। (हालांकि इससे उसका व्रत भंग नहीं होता, क्योंकि उसने पहले से ही इन आगारों के साथ व्रत ग्रहण किया है) क्योंकि जो व्रत निर्जरा का हेतु था, उसमें अगर आर्त्त-ध्यान, रौद्र-ध्यान आता है तो यह कर्मबंध का कारण भी बन सकता है। ऐसे क्लिष्ट परिणामों में आयुष्य पूरा हो जाय तो दुर्गति भी हो सकती है। “जं लेस्सं मरई तं लेस्सं उववज्जई।” हाँ उसकी प्रसन्नता के साथ दृढ़ता रहती है और उसमें काल कर जाय तो सद्गति का ही कारण है। दूसरी बात है-जीवन को महत्त्व देना या तप को? अपनी जगह दोनों ही महत्त्वपूर्ण हैं। पर तप के समय असमाधि उत्पन्न हो गई कोई विशिष्ट रोग अचानक आ धमका है-उन लक्षणों में व्यक्ति पारणक कर लेता है। जीवन है तो पन: तप आदि की आराधना करेगा। इस आगार का दुरुपयोग ना हो इसलिये सामान्य रूप से प्राथमिक दृढ़ता रखने की बात कही जाती है। अतिगाढ़ परिस्थिति में, विशिष्ट कारणों में ही यह आगार काम में लिया जाता है। इस आगार का दुरुपयोग नहीं होना चाहिए। किसी अनुभवी के परामर्श से ही इसका प्रयोग हो अन्यथा दृढ़ता ही श्रेयस्कर है।
SR No.034357
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages292
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size2 MB
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