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________________ "मा { xxviii} कायोत्सर्ग से-कुछ आनुषांगिक लाभों के साथ मुख्य ममत्व त्याग' सधता है। तस्स उत्तरी के पाठ में कायोत्सर्ग के 12 आगार बताये हैं, उन्हें रखकर साधक कायोत्सर्ग करता है। कायोत्सर्ग के घोटक आदि 19 दोष बताये उनसे भी बचकर निर्दोष रीति से कायोत्सर्ग करना चाहिये। साधक का मुख्य ध्येय है-अयोगी अवस्था को प्राप्त करना और उसकी साधना करवाता हैकायोत्सर्ग। तस्स उत्तरी के पाठ में अंतिम में आता है-ठाणेणं, मोणेणं, झाणेणं, अप्पाणं वोसिरामि। कायिक, वाचिक, मानसिक स्थिरता के साथ उस पापात्मा (कषायात्मा) का भी त्याग करता है। योगों की चंचलता दु:ख की हेतु है जबकि स्थिरता सुख की हेतु है और अयोगी अवस्था शाश्वत सुख का कारण बनती है। कायोत्सर्ग आभ्यंतर तप का अंतिम भेद है। यह आत्मा को अंतर्मुखी बनाकर, सर्वकर्म खपाकर शाश्वत सुखी बना देता है। 6. प्रत्याख्यान (गुणधारण)-क्रम प्राप्त छठा अंतिम आवश्यक है प्रत्याख्यान। प्रत्याख्यान का सामान्य प्रचलित अर्थ है त्याग। यह त्याग दो तरह का होता है, द्रव्य-त्याग और भाव-त्याग। द्रव्य से किसी वस्तु, आहार, पानी आदि का त्याग करना। भाव-त्याग है-विषमता का त्याग करना। विषमता को पैदा करने वाले राग-द्वेष-मोह का त्याग करना। भीतर से विषय-भोग आदि की कामना कम हए बिना. द्रव्य त्याग सम्यक् होने वाला नहीं है। कुछ लोग ऊपर से कुछ प्रत्याख्यान लेकर ही राजी हो जाते हैं पर उन्हें आंतरिक आसक्ति को भी तोड़ने का लक्ष्य रखना चाहिए। तभी उन्हें त्याग से होने वाले आनन्द की अनुभूति होगी। साधक का प्रधान लक्ष्य तो सामायिक ही है उसे पुष्ट करने वाले अन्य चार आवश्यक है। प्रत्याख्यान भले ही होता वर्तमान में है पर संबंध भविष्य से है। बोलते भी है-भूतकाल का प्रतिक्रमण वर्तमान काल की सामायिक और भविष्य काल के प्रत्याख्यान। अर्थात् जिस सामायिक को उसने साधा है, उसे भविष्य में भी बनाये रखने के लिए संकल्पित होता है। उस सामायिक में बाधा उपस्थित करने वाले होते हैं-विषय-कषाय, कामनावासना। उन विषय-कषाय कामना-वासना को काबू करने के लिए, न्यून करने के लिए या समाप्त करने के लिए नियम लेता है, प्रतिज्ञा करता है-यह प्रत्याख्यान है। __ यह सम्यक् समझ पूर्वक किया जाता है तो सुप्रत्याख्यान है। अन्यथा लोक दिखावे हेतु, देखा-देखी, होड़ा-होड़ किया जाता है तो दुष्प्रत्याख्यान है। इससे आत्म हित सधने वाला नहीं है। प्रत्याख्यान के प्रमुख दो भेद है। (1) मूल गुण प्रत्याख्यान और उत्तर गुण प्रत्याख्यान-ऐसा भगवती सूत्र में कहा है। मूल गुण प्रत्याख्यान के दो भेद हैं। (1) सर्वमूल गुण प्रत्याख्यान (2) देशमूल गुण प्रत्याख्यान। (1) सर्वमूल गुण में श्रमण के पाँच महाव्रत आते हैं और देशमूल गुण प्रत्याख्यान में श्रावक के पाँच अणुव्रत आते हैं। मूल गुण प्रत्याख्यान जीवन पर्यन्त के लिए होता है।
SR No.034357
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages292
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size2 MB
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