SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 27
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ { xxvii} गिरत-गिरत प्रतिदिन रस्सी भी, शिला घिसावेला। करत-करत अभ्यास मोह को, जोर मिटावेला।। कर लो सामायिक रो साधन.....।। मोह विजय के क्षेत्र में जिनकी अद्भुत साधना थी, उनके ये वचन हैं। उनके भजन की ये पंक्तियाँ भी अंतर-ज्योति को जाज्वल्यमान करने वाली है सतगुरु ने यह बोध बताया, नहि काया नहि माया तुम हो। सोच समझ चहुँओर निहारो, कौन तुम्हारा अरु कौन तुम हो।। समझो चेतनजी अपना रूप, यो अवसर मत हारो।।टेर।। ज्ञान दरस मय रूप तिहारो, अस्थि-माँस मय देह न थारो।। दूर करो अज्ञान, होवे घट उजियारो।। मेरे अंतर भया प्रकाश, नहीं अब मुझे किसी की आस।।टेर।। तन-धन-परिजन सब ही पर हैं, पर की आश-निराश। पुद्गल को अपना कर मैंने, किया स्वत्व का नाश।। मानता हूँ यह साधना कठिन है, पर देह राग से ऊपर उठकर आत्म भावना से भावित होने वाले उन महापुरुषों की कृपा से हम सब भी मोह विजय की साधना में आगे बढ़े। सूत्रकृतांग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कंध में भी कहा है-“अन्नो जीवो, अन्नं देह।" अर्थात् जीव अलग है और देह अलग है। यह भेद विज्ञान ही साधक को सहनशील बनाकर सिद्ध, बुद्ध और मुक्त बनाता है। खंदकाचार्य अपने शिष्यों को घाणी में पिलने से पहले यही अंतिम उद्बोधन देते हैं-“नत्थि जीवस्स नासुत्ति, एवं पेहेज्ज संजए।" हे संयमियों यही अनुप्रेक्षण करो, जीव का नाश नहीं होता, जिसका नाश होता है, वह शरीर है, जड़ धर्मा है। वर्तमान में कायोत्सर्ग में लोगस्स के पाठ का नियम है। देवसिक व रात्रिक कायोत्सर्ग में चार, पाक्षिक को आठ, चातुर्मासिक को 12 तथा सांवत्सरिक महापर्व को 20 लोगस्स का कायोत्सर्ग करना अजमेर साधु सम्मेलन में सुनिश्चित हुआ है। आवश्यक नियुक्ति आदि ग्रंथों में श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग के मुख्य पाँच लाभ गिनाए हैं-(1) देहजाड्य शुद्धि-देह की जड़ता समाप्त होती है।, तन दुरुस्त होता है। (2) मति जाड्य शुद्धि-बौद्धिक जड़ता मिटती है, एकाग्रता बढ़ती है। (3) सुख-दुःख तितिक्षा-सुख-दु:ख सहने की अपूर्व क्षमता विकसित होती है। (4) अनुप्रेक्षा-आत्मचिंतन विकसित होता है। (5) ध्यान-शुभ ध्यान में विकास होता है।
SR No.034357
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages292
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy