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________________ { xxiv } (5) सांवत्सरिक प्रतिक्रमण-आषाढ़ी पूर्णिमा से पचास दिन पश्चात् भाद्रपद शुक्ला पंचमी के दिन सांवत्सरिक महापर्व आता है। इस एक दिन के महापर्व में वर्ष भर के पापों की आलोचना की जाती है। आत्मसाधक तो प्रतिपल सजग रहता है। दैवसिक, रात्रिक प्रतिक्रमण में श्रमण व रुचि वाले श्रावक प्रतिक्रमण करते हैं। कहते हैं कभी किसी के साथ साधु की कुछ कहा-सुनी हो गई और वह उस दिन भी क्षमा याचना न करे तो उसकी साधुता खटाई में पड़ जाती है। उसका साधुत्व व गुणस्थानों से पतन हो जाता है। चार महिने में भी क्षमापना न करे तो श्रावक श्रावकत्व के गुणस्थान से च्युत हो जाता है। वर्ष भर में भी क्षमायाचना न करे तो उसका सम्यक्त्व भी समाप्त हो जाता है। बृहत्कल्प सूत्र के चतुर्थ उद्देशक में और भी अधिक सूक्ष्मता से कथन हुआ है। साधु का किसी के साथ कलह हो जाये तो उसे उस स्थिति में आहार-पानी के लिए जाना-आना नहीं कल्पता है। न ही बड़ी नीति के लिए जाना या विहार करना कल्पता है। उसे क्षमायाचना करने पर ही ये कार्य करने कल्पते हैं। क्षमा, मुनि का प्रथम धर्म है। वैर-वैमनस्य को भुलाकर इस दिन तो सबसे आत्मीयता से गले मिलना चाहिए। तभी आराधना संभव है। यह क्षमापना तो परम आह्लाद भाव को प्रदान करने वाली है। मुक्तिप्रदायक है। भगवान महावीर बृहत्कल्प सूत्र में फरमाते हैं "उवसम सारं खु सामण्णं। जो उवसमई तस्स होई आराहणा। श्रामण्य का (साधना) का सार उपशम भाव है। क्षमा भाव है। जो उदित कषाय को उपशम करता है उसकी ही आत्माराधना होती है। उसके अंतर से तो यही निकलता है-खामेमि सव्वे जीवा, सव्वे जीवा खमंतु मे। मित्ति मे सव्व भुएसु, वेर मज्झ न केणइ। वह 84 लाख जीव योनियों से क्षमा माँगता है, सबको क्षमा देता है, किसी के साथ वैर नहीं रखता। सबके साथ मैत्री भाव की स्थापना करता है। ऐसा उत्कृष्ट मैत्री भाव तो जिनशासन में देखने को मिलेगा, अन्यत्र ऐसा मिलना दुर्लभ है। ठाणांग सूत्र के छठे ठाणे में प्रतिक्रमण के छ: भेद बताए है। (1) उच्चार प्रतिक्रमण-बड़ी नीत परठकर प्रतिक्रमण (ईर्या को) करें। (2) प्रस्रवण प्रतिक्रमण-लघुनीत परठकर प्रतिक्रमण करें। (3) इत्वर प्रतिक्रमण-दिन व रात्रि के अंत में किया जाने वाला प्रतिक्रमण स्वल्पकालीन होने से इत्वर प्रतिक्रमण है। (4) यावत्कयिक प्रतिक्रमण-महाव्रतादि के रूप में जीवन भर के लिए पाप से निवृत्ति करना यावत्कयिक प्रतिक्रमण है। (5) यत्किंचित मिथ्या प्रतिक्रमण-संयम में सावधानी रखते हुये भी, जरा-सी भी स्खलना के लिए किया जाने वाला प्रतिक्रमण। अर्थात् भूल को स्वीकार करके उसके लिए तत्काल मिच्छामि दुक्कडम् देना।
SR No.034357
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages292
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size2 MB
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