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________________ { xxiii} बड़ा आवश्यक प्रतिक्रमणावश्यक' ही है। इसमें ही सबसे अधिक पाठ होने से बोलचाल में लोग आवश्यक सूत्र कर रहे हैं, ऐसा न कहकर प्रतिक्रमण कर रहे हैं ऐसा बोलते हैं। यह आवश्यक सूत्र का हृदय है। पाप के पंक से पीछे हटे बिना जीव पवित्रता के प्रांगण में प्रवेश नहीं कर सकता है। पत्रिवता सबको प्रिय है, परंतु पाप का प्रायश्चित्त किये बिना वह प्राप्त होने वाली नहीं है। पाप त्याग का संकल्प करने के बावजूद भी, औदयिक भाववश या प्रमादवश जीव भूलकर बैठता है। बस उस अतीत की भूल की धूल को झाड़कर, वर्तमान की निर्मलता को प्राप्त करना ही प्रतिक्रमण का प्रधान लक्ष्य है। हेमचन्द्राचार्य ने कहा है-“शुभ योग से अशुभ योगों में गए हुए अपने आपको पुन: शुभ योगों में लौटा लाना प्रतिक्रमण है।" प्रतिक्रमण के पाँच भेद हैं। मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय और अशुभ योग। मिथ्यात्व ही समस्त दोषों का मूल है। इसका त्याग क के लिए पुद्गल में ममत्व बुद्धि का त्याग करना होगा। इस मिथ्यात्व का प्रतिक्रमण हुए बिना अन्य अव्रतादि का प्रतिक्रमण होना असंभव है। अनुयोग द्वार सूत्र में द्रव्य और भाव के भेद से प्रतिक्रमण को दो भागों में विभक्त किया है। द्रव्य प्रतिक्रमण में बिना आत्मिक लक्ष्य के, बिना उपयोग के मात्र पाठोच्चारण होता है-कायिक उठक-बैठक होती है। जबकि भाव प्रतिक्रमण का आराधक लाघक आत्मलक्षी होकर पाठों में उपयोगवान होकर विधि सहित प्रतिक्रमण करता है। उसे अपने दोष से दुःख होता है-इसीलिए उसे दूर करने का प्रयत्न करता है। मुमुक्षु का मिच्छामि दुक्कडम् कुम्हार वाला नहीं होता है कि गलती करता जाय और मिच्छामि दुक्कडम् देता जाय। आज अधिकांशतया प्रतिक्रमण करने वालों की दशा ऐसी है-न तो पाप से पीछे फिरते हैं और न ही अंतर के वैमनस्य, कालुष्य आदि को धोते हैं। भाव प्रतिक्रमणकर्ता का मन तो अपने दोषों के प्रति ग्लानि से भर उठता है। उसका अंतर्मन रोता है कि कब मेरे दोषों का निकंदन होगा, कब मैं निर्दोष बनूंगा। मैं कब वीतरागता का वरण करूँगा। प्रतिक्रमण के पाँच प्रकार भी है-1. दैवसिक, 2. रात्रिक, 3. पाक्षिक, 4. चातुर्मासिक और (5) सांवत्सरिक। (1) दिवस के अतं में किये जाने वाला प्रतिक्रमण दैवसिक है। (2) रात्रि के अवसान में किये जाने वाला प्रतिक्रमण रात्रिक है। (3) पक्ष (पखवाड़े) के अंत में पन्द्रह दिन का किया जाने वाला प्रतिक्रमण पाक्षिक है। (4) चातुर्मासिक-चातुर्मासिक पूर्णिमाएँ वर्ष में तीन आती है-आषाढ़ी पूर्णिमा, कार्तिकी पूर्णिमा और फाल्गुनी पूर्णिमा को किये जाने वाले प्रतिक्रमण चातुर्मासिक प्रतिक्रमण है।
SR No.034357
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages292
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size2 MB
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