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________________ उत्तर परिशिष्ट-4] 177} चरणों का स्पर्श करें, दूसरे अक्षर के उच्चारण में दोनों हाथ हृदय कमल पर लगायें तथा तीसरे अक्षर के उच्चारण में दोनों हाथों को अपने मस्तक पर लगाना चाहिए। अथवा दूसरी तरह से तिक्खुत्तो के पाठ के समान भी अपने दोनों हाथों को ललाट के मध्य से अपने बायें से दाहिनी ओर (Left to Right) घुमाते हुए भी चौथा, पाँचवाँ, छठा आवर्तन दिया जा सकता है। वर्तमान में रत्नसंघ में प्राय: प्रथम विधि से ही इच्छामि खमासमणो के पाठ में आवर्तन दिये जाते हैं। प्रश्न 85. खमासमणो का पाठ उत्कृष्ट वंदना के रूप में मान्य है। तिक्खुत्तो के पाठ को मध्यम वन्दना तथा मत्थएण वंदामि' को जघन्य वंदना कहा गया है, किन्तु आगम में जहाँ कहीं भी तीर्थङ्कर भगवन्तों और संतों को वन्दना का वर्णन आया है वहाँ तिक्खुत्तो के पाठ से वंदना का उल्लेख है। जब तीर्थङ्कर भगवन्तों को तिक्खुत्तो से वन्दना की जाती है तो उत्तम वन्दना किसके लिए? मत्थएण वंदामि का भी क्या औचित्य है? उत्कृष्ट वंदना, मध्यम वंदना और जघन्य वंदना-यह आगम में नहीं है। वहाँ तो द्रव्य-भाव आदि का भेद है । यह पश्चावर्ती महापुरुषों की प्रश्नशैली की देन है। भावपूर्वक करने पर तीनों ही आत्महितकारी हैं। उत्कृष्ट वंदना उभयकाल होती है, जो प्रत्येक प्रतिक्रमण में 36 आवर्तन सहित भाव विभोर करने वाली है। आवश्यक की वन्दना के लिए भी तीन बार तिक्खुत्तो से वंदना की जाती है, अस्तु उत्कृष्ट और मध्यम वंदना अपेक्षा से कहना अयुक्त नहीं। नमस्कार सर्वपाप प्रणाशक है, वंदामि से वंदना गृहीत होती है, अतः नमस्कार को वंदना नहीं कहा । यूँ तो लोगस्स, नमोत्थुणं भी स्तुति, भक्ति, विनय के ही सूत्र हैं, पर वंदना में सम्मिलित नहीं। अस्तु नवकार, भक्ति, स्तुति को वंदना में नहीं कह, ‘मत्थएण वंदामि' के शब्दों की अल्पता से जघन्य में कह दिया। प्रायः ‘नमंसामि वंदामि' एकार्थक भी हैं, साथ-साथ होने पर काया से नमस्कार व मुख से गुणगान अर्थ करना होता है। संस्कृत में मूलतः ‘वदि-अभिवादनस्तुत्योः' (To bow down and to praise) धातु से वंदामि शब्द बनता है । अतः इस एक में दोनों 'स्तुति और नमस्कार' सम्मिलित हैं । तिक्खुत्तो में भी दोनों बार अलग-अलग अर्थ कर इन दोनों को सूचित किया है। अतः बड़ी संलेखना में उसे 'नमोत्थुणं' शब्द से गुणगान सहित नमस्कार कह दिया गया। प्रश्न 86. चत्तारि मंगलं का पाठ क्या गणधर भी बोलते थे? उत्तर आवश्यक सूत्र के सभी पाठ आवश्यक के रचनाकार (सूत्रकार) की रचना रूप माने जाते हैं। जब
SR No.034357
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages292
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size2 MB
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