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________________ उत्तर { 174 [आवश्यक सूत्र वैसे ही अकाल में स्वाध्याय करने से अहित होता है। यथाकाल स्वाध्याय न करने से ज्ञान में हानि तथा अव्यवस्थितता का दोष उत्पन्न होता है। अकाल में स्वाध्याय करने एवं काल में स्वाध्याय न करने में शास्त्राज्ञा का उल्लंघन होता है। अतः इन अतिचारों का वर्जन करके यथासमय व्यवस्थित रीति से स्वाध्याय करना चाहिए। प्रश्न 71. ज्ञान एवं ज्ञानी की सेवा क्यों करनी चाहिए? ज्ञान एवं ज्ञानी की सेवा पाँच कारणों से करनी चाहिए-1. हमें नवीन ज्ञान की प्राप्ति होती है। 2. हमारे संदेह का निवारण होता है। 3. सत्यासत्य का निर्णय होता है। 4. अतिचारों की शुद्धि होती है। 5. नवीन प्रेरणा से हमारे सम्यग्ज्ञान, दर्शन, चारित्र व तप शुद्ध तथा दृढ़ बनते हैं। प्रश्न 72. सम्यक्त्व किसे कहते हैं ? उत्तर सुदेव, सुगुरु, सुधर्म पर श्रद्धा रखना सम्यक्त्व कहलाता है। जिनेश्वर भगवान द्वारा प्ररूपित तत्त्वों में यथार्थ विश्वास करना सम्यक्त्व है। मिथ्यात्व मोहनीय आदि सात प्रकृतियों में क्षय, उपशम अथवा क्षयोपशम से उत्पन्न आत्मा के श्रद्धा रूप परिणामों को 'सम्यक्त्व' कहते हैं। प्रश्न 73. सुदेव कौन हैं? उत्तर जो राग-द्वेष से रहित हैं, अठारह दोष रहित और बारह गुण सहित हैं। सर्वज्ञ सर्वदर्शी हैं। जिनकी वाणी में जीवों का एकान्त हित है। जिनकी कथनी व करनी में अन्तर नहीं है। जो देवों के भी देव हैं। ऐसे तीन लोक के वंदनीय, पूजनीय, परम आराध्य, परमेश्वर प्रभु अरिहंत और सिद्ध हमारे सुदेव हैं। प्रश्न 74. सुगुरु कौन हैं? उत्तर जो तीन करण तीन योग से अहिंसादि पंच महाव्रत का पालन करते हैं। कंचन-कामिनी के त्यागी हैं। पाँच समिति, तीन गुप्ति का निर्दोष पालन करते हैं । भिक्षाचर्या द्वारा जीवन-निर्वाह करते हुए स्वयं संसार-सागर से तिरते हैं, अन्य जीवों को भी तिरने हेतु जिनेश्वर भगवान द्वारा प्ररूपित धर्म का उपदेश देते हैं, वे साधु ही सुगुरु हैं। प्रश्न 75. सच्चा धर्म कौनसा है ? उत्तर आत्मा को दुर्गति से बचाकर मोक्ष की ओर ले जाने वाले विशुद्ध मार्ग को सुधर्म कहते हैं। जिनेश्वर भगवान द्वारा प्ररूपित अहिंसा, संयम और तप का समन्वित रूप सच्चा धर्म है। जीवात्मा द्वारा सम्यग्ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि निजगुणों का आराधन करना भी सच्चा धर्म है। प्रश्न 76. मिथ्यात्व किसे कहते हैं ? उत्तर मोह के उदय से तत्त्वों की सही श्रद्धा नहीं होना या विपरीत श्रद्धा होना मिथ्यात्व है। अथवा देव गुरु-धर्म एवं आत्म-स्वरूप सम्बन्धी विपरीत श्रद्धान होना 'मिथ्यात्व' कहलाता है।
SR No.034357
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages292
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size2 MB
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