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________________ { 172 [आवश्यक सूत्र व्यतिक्रम-व्रत का उल्लंघन करने के लिये कायिकादि व्यापार प्रारंभ करने को व्यतिक्रम कहते हैं। अतिचार-व्रत को भंग करने की सामग्री इकट्ठी करना, व्रत भंग के निकट पहुँच जाना अतिचार है। अनाचार-व्रत का सर्वथा भंग करना अनाचार है। प्रश्न 60. प्रतिक्रमण का सार किस पाठ में आता है? कारण सहित स्पष्ट कीजिए। उत्तर प्रतिक्रमण का सार 'इच्छामि ठामि पडिक्कमिउं' के पाठ में आता है। क्योंकि पूरे प्रतिक्रमण में ज्ञान, दर्शन, चारित्राचारित्र तथा तपके अतिचारों की आलोचना की जाती है। इच्छामि ठामि में भी इनकी संक्षिप्त आलोचना हो जाती है, इस कारण इसे प्रतिक्रमण का सार पाठ कहा जाता है। प्रश्न 61. 'इच्छामि ठामि' के पाठ में कभी तो 'इच्छामि ठामि काउस्सग्गं' कभी 'इच्छामि आलोउं' एवं कभी 'इच्छामि पडिक्कमिउं' बोला जाता है। यह अंतर क्यों? उत्तर कायोत्सर्ग की साधना के पूर्व में इच्छामि ठामि काउस्सगं' बोला जाता है क्योंकि कायोत्सर्ग की साधना की जाती है। ध्यान के अंदर ‘इच्छामि आलोउं बोलते हैं क्योंकि दोषों/अतिचारों की आलोचना की जाती है एवं प्रतिक्रमण आवश्यक में प्रतिक्रमण की प्रधानता के कारण 'इच्छामि पडिक्कमिउं' बोला जाता है। प्रश्न 62. 'इच्छामि ठामि' के पाठ में योगों का क्रम काइओ, वाइओ, माणसिओ इस प्रकार से क्यों रखा गया है? उत्तर मन के योग में चिंतन-मनन की, वचन योग में कीर्तन-गुणगान की एवं काय योग में शारीरिक प्रवृत्तियों की प्रधानता होती है। जिस पाठ में प्रधानता मन की हो, यानी चिंतन-मनन-निंदाआलोचना की हो वहाँ प्रथम स्थान मनोयोग को दिया जाता है जैसे बारह वतों के अतिचारों की आलोचना के समय मणसा-वयसा-कायसा बोला जाता है तथा लोगस्स के पाठ में चौबीस तीर्थङ्करों की स्तुति की गई है। वहाँ कित्तिय-वंदिय- महिया कहा गया, क्योंकि वचन योग से कीर्तन, काय योग से वन्दन एवं मन योग से पूजन किया गया है। अतः वहाँ वचन योग को प्रधानता दी गई है। 'इच्छामि ठामि' के पाठ को कायोत्सर्ग की साधना के पूर्व में बोला जाता है और कायोत्सर्ग में काया के व्यापार के उत्सर्ग की प्रधानता है। अतः यहाँ काइओ-वाइओ-माणसिओ कहा गया । इसी प्रकार ‘तस्स उत्तरी' का पाठ भी कायोत्सर्ग से पूर्व बोला जाता है वहाँ भी सर्वप्रथम 'ठाणेणं' यानी शरीर को स्थिर करके फिर 'मोणेणं' यानी वचन योग को एवं तब ‘झाणेणं' यानी ध्यान लगाकर मनोयोग को नियंत्रित किया जाता है।
SR No.034357
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages292
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size2 MB
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