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________________ {158 [आवश्यक सूत्र उत्कृष्ट सूत्र भाव द्वारा परिणत ऐसे आवश्यक के परिणाम रखने वाले उसी आवश्यक के सिवाय अन्यत्र किसी स्थान पर मन, वचन और काया के योगों को न करते हुए चित्त की एकाग्रता रखने वाले दोनों समय उपयोग सहित आवश्यक करे, उसको लोकोत्तर नो आगम से भावावश्यक कहते हैं । (5) आवश्यक की महत्ता जड़ दोसो तं छिंदड़, असंतदोसम्मि णिज्जरं कुणड़ । कुसल तिगिच्छरसायण-मुवणीयमिंद पडिक्कमणं ।। उभयकाल आवश्यक (भाव सहित) करना कुशल चिकित्सक के उस रसायन के समान है, जो रोग होने पर उसका उपशमन कर देता है और नहीं होने पर शरीर में बल वृद्धि (तेज, कान्ति) कर देता है । इसी प्रकार आवश्यक करने से अगर व्रतों में अतिचार = दोष लगे हो तो उसकी शुद्धि हो जाती है, और नहीं लगे हो तो स्वाध्याय रूप होने से कर्मों की निर्जरा होती है और बराबर स्मृति बने रहने से भविष्य में अतिचार न लगे, इसकी सजगता बनी रहती है । अतः आवश्यक करना हर दृष्टि से उपयोगी है। श्रमण- श्रमणी के आवश्यक सूत्र में अन्तर श्रमण और श्रमणी के निम्न पाठों में भिन्नता है- (i) शय्या सूत्र में 'इत्थीविप्परिया सियाए' के स्थान पर श्रमणी 'पुरिसविप्परिया सियाए पढ़ेगी। (ii) 33 बोल में (1) विकथा सूत्र में श्रमणी स्त्रीकथा की जगह पुरुषकथा पढ़ेगी। (2) नवमें बोल में नववाड़ में जहाँ जहाँ भी श्रमण स्त्री शब्द उच्चारण करता है, उसके स्थान पर श्रमणी पुरुष शब्द का उच्चारण करेगी या ऐसा समझेगी। (3) 22 परीषह में श्रमणी स्त्री परीषह के स्थान पर पुरुष परीषह कहेगी। (4) 25 भावना में भी चौथे महाव्रत की भावना में स्त्री के स्थान पर पुरुष शब्द आयेगा। ( 5 ) तेतीसवें बोल में जहाँ भी गुरु-शिष्य श्रमण के लिए आता है, श्रमणी के लिए गुरुणी-शिष्या ऐसा पाठ आयेगा। (iii) प्रतिज्ञा सूत्र नामक पाँचवीं पाटी में जहाँ भी समणो अहं पाठ आता है, वहाँ समणी अहं ऐसा पाठ कहेगी। (iv) चौथे महाव्रत में साधु जी स्त्री सम्बन्धी मैथुन से 3 करण और 3 योग से पूर्ण विरत होते हैं, वहीं साध्वी जी पुरुष सम्बन्धी मैथुन से विरत होते हैं। वह मनुष्य, स्त्री, तिर्यञ्चनी के स्थान पर पुरुष तथा तिर्यञ्च शब्द बोलेगी। (v) एषणा - समिति में माण्डला के पाँच दोष है, जिसमें से एक दोष परिमाण का है । साधु जी के लिए शास्त्रकारों ने 32 कवल का परिमाण, तो साध्वी जी के लिए 28 कवल का विधान किया है। (vi) वचन गुप्ति में स्त्री कथा के स्थान पर पुरुष कथा पढ़ेगी । विधि में अन्तर-श्रमण श्रमणी के लिए कायोत्सर्ग खड़े-खड़े जिन मुद्रा में करने का विधान है, यदि खुला स्थान हो तो श्रमणी के लिए कायोत्सर्ग सुखासन में बैठे-बैठे ही करने का विधान है। coo
SR No.034357
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages292
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size2 MB
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