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________________ { 146 [आवश्यक सूत्र करेमि, न कारवेमि, मणसा, वयसा, कायसा, ऐसी मेरी सद्दहणा प्ररूपणा तो है सामायिक का अवसर आये, सामायिक करूँ तब फरसना करके शुद्ध होऊँ एवं नवमें सामायिक व्रत के पंच-अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा तं जहा ते आलोउं-मणदुप्पणिहाणे, वयदुप्पणिहाणे, कायदुप्पणिहाणे, सामाइयस्स सइ अकरणया, सामाइयस्स अणवट्ठियस्स करणया, जो मे देवसिओ अइयारो कओ तस्स मिच्छा मि दुक्कडं ।। अन्वयार्थ-सावज्जं जोगं = सावद्य (पापकारी) योगों का, पच्चक्खामि = प्रत्याख्यान करता हूँ। जाव नियमं पज्जुवासामि = जब तक सामायिक के नियम का पालन करूँ तब तक । मणदुप्पणिहाणे =मन से अशुभ विचार किये हों । वयदुप्पणिहाणे = अशुभ वचन बोले हों । कायदुप्पणिहाणे = शरीर से अशुभ कार्य किये हों। सामाइयस्स सइ-अकरणया = सामायिक की स्मृति नहीं रखी हो । सामाइयस्स = सामायिक को । अणवट्ठियस्स करणया = अव्यवस्थित रूप से किया हो।।9।। भावार्थ-मैं मन, वचन, काया की दुष्ट प्रवृत्ति को त्यागकर जितने काल का नियम किया है, उसके अनुसार सामायिकव्रत का पालन करूँगा मन में बुरे विचार उत्पन्न नहीं होने से, कठोर या पापजनक वचन नहीं बोलने से, काया की हलन-चलन आदि क्रिया को रोकने से आत्मा में जो शांति समाधि उत्पन्न होती है, उसको सामायिक कहते हैं। इसलिये मैं नियम पर्यन्त मन, वचन, काया से पापजनक क्रिया न करूँगा और न दूसरों से करावऊँगा। यदि मैंने सामायिक के समय में बुरे विचार किए हों, कठोर वचन या पापजनक वचन बोले हों, अयतनापूर्वक शरीर से चलना-फिरना, हाथ-पाँव को फैलाना-संकोचना आदि क्रियाएँ की सामायिक करने का काल याद न रखा हो तथा अल्पकाल तक या अनवस्थित रूप से जैसे-तैसे ही सामायिक की हो तो (तस्स मिच्छा मि दुक्कडं) मैं आलोचना करता हूँ। मेरा वह पाप सब निष्फल हो। 10. दसवाँ देसावगासिक व्रत-दिन प्रति प्रभात से प्रारम्भ करके पूर्वादिक छहों दिशाओं में जितनी भूमिका की मर्यादा रखी है, उसके उपरान्त पाँच आस्रव सेवन निमित्त स्वेच्छा काया से आगे जाने तथा दूसरों को भेजने का पच्चक्खाण जाव अहोरत्तं दुविहं तिविहेणं न करेमि, न कारवेमि, मणसा, वयसा, कायसा तथा जितनी भूमिका की हद्द रखी है उसमें जो द्रव्यादि की मर्यादा की है, उसके उपरान्त उपभोग-परिभोग वस्तु को भोग निमित्त से भोगने का पच्चक्खाण जाव अहोरत्तं एगविहं तिविहेणं न करेमि.मणसा. वयसा.कायसा एवं दसवें देसावकासिक व्रत के पंच-अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा तं जहा ते आलोउं-आणवणप्पओगे, पेसवणप्पओगे, सद्दाणुवाए, रूवाणुवाए, बहियापुग्गलपक्खेवे, जो मे देवसिओ अइयारो कओ तस्स मिच्छा मि दुक्कडं।। अन्वयार्थ-देसावगासिक = मर्यादाओं का संक्षेप (कम) करना । जाव अहोरत्तं = एक दिन-रात पर्यन्त । आणवणप्पओगे = मर्यादा किये हुए क्षेत्र से आगे की वस्तु को आज्ञा देकर माँगना । पेसवणप्पओगे = परिमाण किये हुए क्षेत्र से आगे की वस्तु को मँगवाने के लिए या लेन-देन करने के लिए अपने नौकर आदि
SR No.034357
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages292
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size2 MB
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