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________________ { 116 [आवश्यक सूत्र कर सुखानुभव करना, ग्रीष्मकाल में मयूर पंख का और ताड़पत्र का पंखा झलकर शीतल वायु का सेवन करना और कोमल स्पर्श वाले वस्त्र, बिछौने और आसन का उपयोग करना । शीतकाल में उष्णता उत्पन्न करने वाले वस्त्र, शाल दुशाले आदि ओढ़ने तथा अग्नि के ताप या सूर्य के ताप का सेवन करना तथा ऋतुओं के अनुसार स्निग्ध, मृदु, शीतल, उष्ण, लघु आदि सुखदायक पदार्थों का और इसी प्रकार के अन्य सुखद स्पर्शों का अनुभव करके आसक्त नहीं होना चाहिये । अनुरक्त, लुब्ध, गृद्ध एवं मूर्च्छित भी नहीं होना चाहिए और उन स्पर्शों को प्राप्त करने की चिन्ता तथा प्राप्ति पर प्रसन्न, तुष्ट एवं हर्षित नहीं होना चाहिए । इतना ही नहीं इन्हें प्राप्त करने का विचार अथवा पूर्व प्राप्त का स्मरण भी नहीं करना चाहिये। मनोज्ञ स्पर्श की रुचि, आसक्ति एवं लुब्धता का निषेध किया जा रहा है। साधु स्पर्शेन्द्रिय से अमनोज्ञ और दुःखदायक स्पर्शों का स्पर्श कर उनमें द्वेष न करे । वे अमनोज्ञ स्पर्श कौनसे हैं ? विविध प्रकार से कोई वध करे, रस्सी आदि से बाँधे, थप्पड़ आदि मारकर ताड़ना करे, उष्ण लोह शलाका से दाग कर अंग पर चिह्न बनावे, शक्ति से अधिक भार लादे, अंगों को तोड़े-मरोड़े, नखों से सुई चुभावे, शरीर को छीले, उबलता हुआ लाख का रस, क्षार युक्त तेल, राँगा, शीशा व तपा लोह रस से अंग सिंचन करे । हड्डी-बन्धन (खोड़े में पाँव फँसाकर बन्दी बनावे), रस्सी या बेड़ी से बाँधे, हाथों में हथकड़ी डाले, कुम्भी में पकावे, अग्नि में जलावे, सिंह पुच्छन उदबन्धन-वृक्ष आदि पर बाँधकर लटकावें, शूल भोंके या शूली पर चढ़ावे, हाथी के पैरों में डालकर कुचले, हाथ, पाँव, कान, नासिका और मस्तक का छेदन करे । जीभ उखाड़ ले, नेत्र, हृदय और दाँतों को उखाड़ दे, चाबुक, बेंत या लता से प्रहार करे, पाँव, एड़ी, घुटना और जानु आदि पर पत्थर से प्रहार करे, कोल्हू आदि में डालकर पीले, करेंच फल के बूर या अन्य साधन से तीव्र रूप से खुजली उत्पन्न करे । आग में तपावे या जलावे, बिच्छु के डंक लगवावे, वायु, धूप, डांस, मच्छर आदि से होने वाले कष्ट, उबड़खाबड़ शय्या एवं आसन तथा अत्यन्त कठोर, भारी, शीत, उष्ण, रुक्ष और इस प्रकार के अन्य अनिच्छनीय एवं दु:खदायक स्पर्श होने पर साधु को उन पर द्वेष नहीं करना चाहिए । हीलना, निन्दा, गर्हा व खींसना नहीं करनी चाहिये । क्रोधित होकर उनका छेदन, भेदन और वध नहीं करना चाहिये, उन पर घृणा नहीं करनी चाहिये । इस प्रकार स्पर्शेन्द्रिय सम्बन्धी भावना से भावित आत्मा वाला साधु निर्मल होता है, उसका चारित्र विशुद्ध रहता है। मनोज्ञ या अमनोज्ञ, सुगन्धित या दुर्गन्धित पदार्थों में आत्मा को राग द्वेष रहित रखता हुआ साधु मन, वचन और काया से गुप्त एवं संवृत रहे और जितेन्द्रिय होकर धर्म का आचरण करे। छठे-रात्रि भोजन विरमण व्रत के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो तो आलोउं-अशन, पान, खादिम, स्वादिम, संद (चिकनाई), गंध, सीत मात्र (कण मात्र), रात बासी रखा हो, रखाया हो, रखते हुए को भला जाना हो, दिवस सम्बन्धी कोई पाप-दोष लगा हो तो तस्स मिच्छामि दुक्कडं।
SR No.034357
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages292
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size2 MB
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