SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 111
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थ अध्ययन - प्रतिक्रमण] 75} भावार्थ-भगवान ऋषभदेव से लेकर भगवान महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थङ्कर देवों को मैं नमस्कार करता हूँ। यह तीर्थङ्करोपदष्टि निर्ग्रन्थ-प्रवचन ही सत्य है, अनुत्तर-सर्वोत्तम है, केवलिक-केवलज्ञानियों द्वारा प्ररूपित है, (मोक्षप्रापक गुणों से) परिपूर्ण है, न्याय, युक्ति, तर्क से अबाधित है, पूर्णरूप से शुद्ध अर्थात् सर्वथा निष्कलंक है, माया आदि शल्यों को नष्ट करने वाला है, सिद्धिमार्ग-सिद्धि की प्राप्ति का उपाय है, कर्म-बंधन से मुक्ति का साधन है, संसार से छुड़ाकर मोक्ष का मार्ग है, पूर्ण शांति रूप निर्वाण का मार्ग है, मिथ्यात्वरहित है, विच्छेदरहित अर्थात् सनातन नित्य है तथा पूर्वापरविरोध से रहित है, सब दु:खों का पूर्णतया क्षय करने का मार्ग है। इस निर्ग्रन्थ प्रवचन में स्थित रहने वाले अर्थात् तद्नुसार आचरण करने वाले भव्य जीव सिद्ध होते हैं, बुद्ध-सर्वज्ञ होते हैं, मुक्त होते हैं, पूर्ण आत्मशांति को प्राप्त करते हैं, समस्त दु:खों का सदाकाल के लिए अंत करते हैं। मैं इस निर्ग्रन्थ प्रवचन रूप धर्म पर श्रद्धा करता हूँ, प्रतीति करता हूँ, रुचि करता हूँ, स्पर्शना करता हूँ, पालना अर्थात् रक्षा करता हूँ। विशेष रूप से निरंतर पालन करता हूँ। मैं प्रस्तुत जिन-धर्म की श्रद्धा करता हुआ, प्रतीत करता हुआ, रुचि करता हुआ, स्पर्शना आचरण करता हुआ, पालन करता हुआ, विशेष रूप से निरंतर पालन करता हुआ-उस केवली प्ररूपित धर्म की आराधना के लिए उद्यत होता हूँ और विराधना से विरत-निवृत्त होता हूँ। असंयम को ज्ञपरिज्ञा से जानता और प्रत्याख्यानपरिज्ञा से त्यागता हूँ तथा संयम को स्वीकार करता हूँ। अब्रह्मचर्य को जानता और त्यागता हूँ और ब्रह्मचर्य को स्वीकार करता हूँ। अकल्प्य (अकृत्य) को जानता और त्यागता हूँ, कृत्य को स्वीकार करता हूँ। अज्ञान को जानता और त्यागता हूँ, कृत्य को स्वीकार करता हूँ। अज्ञान को जानता और त्यागता हूँ, ज्ञान को स्वीकार करता है। अक्रिया-नास्तिकवाद को जानता और त्यागता हूँ, सम्यक्त्व-सदाग्रह को स्वीकार करता हूँ। हिंसा आदि अमार्ग को (ज्ञपरिज्ञा से) जानता और (प्रत्याख्यानपरिज्ञा से) त्यागता हूँ। अहिंसा आदि मार्ग को स्वीकार करता हूँ। जिन दोषों को स्मरण कर रहा हूँ, जो याद हैं और जो स्मृतिगत नहीं हैं, जिनका प्रतिक्रमण कर चुका हूँ और जिनका प्रतिक्रमण नहीं कर पाया हूँ, उन दिवस संबंधी अतिचारों का प्रतिक्रमण करता हूँ। मैं श्रमण हूँ, संयमी हूँ, विरत-सावद्य व्यापारों से एवं संसार से निवृत्त हूँ, पापकर्मों को प्रतिहत करने वाला हूँ, निदान शल्य से रहित अर्थात् आसक्ति से रहित हूँ, दृष्टिसम्पन्न-सम्यग्दर्शन से युक्त हूँ, माया सहित मृषावाद-असत्य का परिहार करने वाला हूँ। __ढ़ाई द्वीप और दो समुद्र परिमित मानव क्षेत्र में अर्थात् पन्द्रह कर्मभूमियों में जो भी रजोहरण, गुच्छक एवं पात्र को धारण करने वाले तथा पाँच महाव्रतों, अठारह हजार शीलांगों-सदाचार के अगों को धारण करने वाले तथा निरतिचार आचार के पालन त्यागी साधु मुनिराज हैं, उन सबको सिर नमाकर, मन से, मस्तक से वंदना करता हूँ।
SR No.034357
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages292
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy