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________________ {74 [ आवश्यक सूत्र = को (शारीरिक तथा मानसिक), मंतं करेंति नाश करते हैं, तं धम्मं सद्दहामि उस धर्म की श्रद्धा करता हूँ, पत्तियामि प्रतीति करता हूँ, रोएमिरुचि करता हूँ, फासेमिकाया से उसकी फरसना करता हूँ, पालेमि = पालन करता हूँ, अणुपालेमि अनुपालन करता हूँ, तं धम्मं सद्दहंतो = उस धर्म की श्रद्धा = : = = काय से स्पर्श करता = = करता हुआ, पतिअंतो, रोअंतो प्रतीति करता हुआ, रुचि करता हुआ, फासंतो हुआ, पालंतो = पालन करता हुआ, अणुपालंतो = विधि पूर्वक भाव से पालन करता हुआ, तस्स धम्मस्स = उस धर्म की, केवलि - पन्नत्तस्स = जो केवलि प्ररूपित है, अब्भुट्टिओमि आराहणाए = आराधना में तत्पर हुआ हूँ, विरओमि विराहणाए = विराधना से अलग होता हूँ, असंजमं परियाणामि = असंयम को 'ज्ञ' परिज्ञा से बुरा समझकर त्यागता हूँ, संजमंसत्तरह प्रकार के संयम को, उवसंपज्जामि= स्वीकार करता हूँ, अबंभं परियाणामि अब्रह्मचर्य को 'ज्ञ' परिज्ञा से बुरा समझ कर त्यागता हूँ, बंभ उवसंपज्जामि ब्रह्मचर्य को स्वीकार करता हूँ, अकप्पं अकल्प यानी नहीं करने योग्य कार्य को, परियाणामित्यागता हूँ, कप्पंकल्प यानी करने योग्य कार्य को, उवसंपज्जामि स्वीकार करता हूँ, अन्नाणं परियाणामि = अज्ञान को त्यागता हूँ, नाणं उवसंपज्जामि = ज्ञान को स्वीकार करता हूँ, अकिरियं = अक्रिया-अज्ञान पूर्वक मिथ्या क्रिया को, परियाणामि = त्यागता हूँ, किरियं = ज्ञान पूर्वक क्रिया को, उवसंपज्जामि = स्वीकार करता हूँ, मिच्छत्तं परियाणामि = मिथ्यात्व को त्यागता हूँ, सम्मत्तं उवसंपज्जामि = सम्यक्त्व को स्वीकार करता हूँ, अबोहिं परियाणामि = अबोधि - मिथ्या ज्ञान या दुर्लभ बोधिपन को त्यागता हूँ, बोहिं उवसंपज्जामि = सुलभ बोधिपन को स्वीकार करता हूँ, उम्मग्गं परियाणामि उन्मार्ग (कुपथ) को त्यागता हूँ, मग्गं उवसंपज्जामि सुमार्ग को स्वीकार करता हूँ, जं संभरामि जिन अतिचारों का स्मरण हो रहा है, जं च न संभरामि और जिनका स्मरण नहीं हो रहा है (भूल रहा हूँ), जं पडिक्कमामि जिनका प्रतिक्रमण कर रहा हूँ, जं च न पडिक्कमामि और जिनका प्रतिक्रमण नहीं कर रहा हूँ, तस्स सव्वस्स = उन सब, देवसियस्स अइयारस्स = दिवस सम्बन्धी अतिचारों का, पडिक्कम मि = प्रतिक्रमण करता हूँ, यानी दोषों से पीछे हटता हूँ, समणोऽहं संजय = मैं श्रमण- साधु हूँ, संयमी, विरय = विरत (पापों से अलग), पडिहय = भूतकाल के दोषों का, पच्चक्खाय = प्रतिक्रमण के द्वारा निवारण करने और, पावकम्मो = भविष्य के पापों का प्रत्याख्यान (त्याग) करने वाला हूँ, अनियाणो = क्रिया के फल का निदान नहीं करने वाला, दिट्टि संपण्णो सम्यग्दृष्टि से युक्त, माया मोसमाया युक्त झूठ अढ़ाई द्वीप और दो समुद्रों में, = = = = = = = = का, विवज्जिओ = विवर्जन करने वाला हूँ, अड्डाइज्जेसु दीवसमुद्देसु पण्णरस कम्मभूमिसु = पन्द्रह कर्मभूमि क्षेत्र में, जावंत केइ साहू जितने भी कोई साधु, रयहरण = गुच्छ = रजोहरण, गोच्छग, पूँजनी, पडिग्गह धारा और पात्र के धारण करने वाले हैं, पंच महव्वयधारा = पाँच महाव्रत के धारक, अट्ठारस सहस्स सीलंग = अठारह हजार शीलांग, रथधारा = रथ के धारक हैं, अक्खय- आयार चरित्ता अक्षत (निरतिचार) आचार वाले सच्चरित्रवान हैं, ते सव्वे उन सबको, सिरसा मणसा = सिर से, भाव से, मत्थएण वंदामि = सिर झुकाकर मैं नमस्कार करता हूँ । = - = = =
SR No.034357
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages292
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size2 MB
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