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________________ (6) प्रतिक्रमण चालू करने से कुछ समय पूर्व शांत होकर बैठे-जीवन में जाने-अनजाने होने वाली पापक्रियाओं के प्रायश्चित्त हेतु प्रतिक्रमण किया जाता है। जब तक पापों को स्मृति पटल पर नहीं लाया जायेगा उनकी आलोचना व मिच्छा मि दुक्कडं कैसे दिया जायेगा? अत: प्रतिक्रमण के पूर्व 15-20 मिनिट शांत बैठकर अपनी दैनिक क्रियाओं का निरीक्षण करें, जो-जो पापकारी क्रियाएँ हई हैं, जिन-जिन के साथ मनमुटाव हुआ है, उन प्रसंगों, व्यक्तियों को सामने लाकर उस गलती को मन से स्वीकार करें फिर विधि में बोले जाने वाले पाठ के माध्यम से उसका प्रतिक्रमण करें तो भावविशुद्धि विशेष होगी। (7) प्रतिक्रमण करने के पहले, करते समय व करने के बाद अहोभाव रखें-जब प्रतिक्रमण करने का सुअवसर प्राप्त हो मन में एक विशेष प्रसन्नता का अनुभव करें, मुझे अपने कृत पापों की आलोचना करने का सुनहरा अवसर मिल रहा है, पाप के कार्यों से समय मिल रहा है, यह मेरा सद्भाग्य है मैं पूरी एकाग्रता से विधि सहित इसे पूरा करूँगा इस संकल्प के साथ प्रतिक्रमण शुरू करें। प्रतिक्रमण करते समय प्रत्येक पाठ के अर्थ, प्रयोजन आदि पर ध्यान देते हुए पाठों के शुद्ध उच्चारण पूर्वक प्रतिक्रमण को पूरे उत्साह के साथ पूरा करें। पूर्ण होने के बाद अपने आपको धन्य-धन्य मानें, आज का मेरा यह समय सार्थक हुआ है, उसकी खुशी चेहरे पर स्पष्ट नज़र आने लगे, जब भी मौका मिलेगा प्रतिक्रमण करके अपने को धन्य करूँगा ऐसा संकल्प करें, अपनी प्रसन्नता का अनुभव करें। हल्कापन महसूस करें। परमात्मा के प्रति धन्यवाद ज्ञापित करें-आपकी कृपा से मुझे यह अवसर प्राप्त हुआ है। गुरुदेव का आभार मानें-उनके मार्गदर्शन के कारण ही यह संभव हुआ है। इस प्रकार अहोभाव व श्रद्धाभाव प्रकट करें। (9) सभी से अंतर से क्षमायाचना करें-प्रतिक्रमण के बाद 84 लाख जीवयोनि से क्षमायाचना की जाती है। हमारी क्षमायाचना अंतर्हृदय से होनी चाहिए। जिनके साथ भी हमारा मनमुटाव है। उनसे क्षमायाचना करनी चाहिए। केवल परंपरा का निर्वहन कर लेना मात्र पर्याप्त नहीं है। उत्तराध्ययन सूत्र के 29वें अध्ययन में क्षमापना से जीव को किस फल की प्राप्ति होती है, इस प्रश्न के उत्तर में भगवान ने फरमाया है कि क्षमापना से प्रह्लाद भाव की उत्पत्ति होती है अर्थात् प्रसन्नता का अनुभव करता है जिससे सब जीवों के साथ मैत्री भाव होता है, उससे भावविशुद्धि होकर जीव निर्भय बन जाता है अत: क्षमा करना व क्षमा माँगना दोनों ही कार्य अंतर्भावना से होने चाहिए। यदि हम इस प्रक्रिया से प्रतिक्रमण की साधना करें तो निश्चित ही भाव प्रतिक्रमण के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है। आवश्यक का क्रम एवं वैशिष्ट्य आवश्यक हैं-(1) सामायिक (2) चतुर्विंशति स्तव (3) वंदना (4) प्रतिक्रमण (5) कायोत्सर्ग (6) प्रत्याख्यान। मूलाचार ग्रन्थ में 6 आवश्यकों के नाम इस प्रकार मिलते हैं-(1) समता (2) स्तव (3) वंदन (4) प्रतिक्रमण (5) प्रत्याख्यान (6) विसर्ग। छहों आवश्यकों का क्रम बहुत वैज्ञानिक और क्रमबद्ध हैं। शान्त्याचार्य के अनुसार विरति सहित व्यक्ति के ही सामायिक संभव है। विरति और सामायिक दोनों एक साथ उत्पन्न होते हैं। जब तक हृदय में समता का अवतरण नहीं होता तब तक समता के शिखर पर स्थित
SR No.034357
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages292
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size2 MB
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