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________________ साहजिक मन, वाणी और काया वाले का प्रत्येक कार्य सरल होता है। शरीर, मन, वाणी की जितनी निरोगिता उतनी आत्मा की सहजता। मन-वचन-काया अपने आप डिस्चार्ज होते रहते हैं। उनमें यदि खुद एकाकार हो जाएगा तब रोग उत्पन्न होता है। भले ही भरा हुआ माल उल्टा-सीधा, सही-गलत निकले, उसमें तन्मयाकार नहीं होना है। उसे मात्र देखते रहना है तो वह खाली होता जाएगा। संसार अपने आप सहज रूप से चलता रहता है। बुद्धि-अहंकार प्रिकॉशन लेने जाते हैं वह एक प्रकार की चंचलता है। वर्ना, अपने आप सबकुछ हो ही जाता है। मात्र उसे देखते ही रहना है कि क्या होता है ! विचार करना, वह मन का धर्म है। हमें विचारों से दूर रहकर देखने की ज़रूरत है। विचारों को देखने वाला आत्मा है। आत्मा खुद नहीं देखता लेकिन वास्तव में तो अपनी जो प्रज्ञा शक्ति है, वह देखती है। जब तक निरालंब नहीं हो जाता तब तक प्रज्ञा फुल (संपूर्ण) काम नहीं करती। जैसे-जैसे विचारों को ज्ञेय बनाते जाओगे वैसे-वैसे ज्ञाता पद मज़बूत होता जाएगा। विचारों को ज्ञेय रूप से देखना, वह शुद्धात्मा का विटामिन है। हम शुद्धात्मा बन गए इसलिए मन के साथ कोई लेन-देन ही नहीं रहा। ज्ञाता-दृष्टा पद हो गया तो मन वश हो गया कहलाता है। यह ज्ञान मन को वश में ही करने वाला है। इससे बाद में लोगों का मन आपके वश में होता जाएगा। मन वश होना अर्थात् क्या कि हम जो कहे उसी अनुसार उनका मन एडजस्ट ही होता जाता है। वाणी, वह टेपरिकॉर्डर है, वह साहजिक चीज़ है। साहजिकपन के लिए खुद ज्ञाता-दृष्टा रहे तो साहजिकपन आएगा। जो कर्ता है उसे कर्ता रहने दो और जो ज्ञाता है उसे ज्ञाता बनने दो। जैसा है वैसा होने दो तो सबकुछ ठीक हो जाएगा। इस ज्ञान का निचोड़ ही यह है। आत्मा, आत्मा का फर्ज बजाए, चंदूभाई, चंदूभाई का फर्ज बजाए, 19
SR No.034326
Book TitleSahajta Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Other
File Size2 MB
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