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________________ 278 ज्ञानी पुरुष (भाग-1) सामने नहीं देखती थीं, इसलिए मुझे उन पर बहुत गर्व था, ज़बरदस्त गर्व! गर्व तो रहेगा न! चाहे कितना भी कपट करें फिर भी गर्व रहता था। मेरे मन में तो कितना वो था! भले इतनी अधिक बुद्धि थी लेकिन इस तरफ सीधे रहे इसलिए उन्हें इतना सब आता भी है न! वर्ना आता क्या? मेरे लिए तो बहुत पूज्य हैं! वे डाँटे फिर भी मन में ऐसा रहता है कि ऐसी भाभी तो मिलेगी ही नहीं न! वर्ना सुनना पड़ता न हमें? प्रश्नकर्ता : हाँ। दादाश्री : पूरा गाँव कहता है कि 'आपकी भाभी ने कभी भी इज़्ज़त पर किसी भी तरह का कलंक या और किसी भी प्रकार की चरित्र के बारे में शिकायत नहीं आने दी'। वर्ना यदि किसी भी प्रकार से उनके चरित्र का खंडन होता तो सारी परेशानी तो मुझ पर ही आती न? इसलिए मेरे लिए तो इतना ही बहुत हो गया। 'आपको मुझे गालियाँ देनी हों तो दे देना'। हिसाब ही चुकाना है न! और क्या करना है? __ हमारे मन में ऐसा होता है कि इतना उत्तम गुण है, इसलिए हम थोड़ी बहुत मार खा लेंगे लेकिन इनके साथ निभा लेंगे। इस उत्तम गुण को लेकर उनके वश में रहे हम कि 'ऐसे उत्तम गुण!' हमारे घर में इस तरह से था। चरित्र में बहुत ही हाई, मदर-वदर सभी, शुरू से ही। तो उन्होंने चरित्र संभाल लिया। अच्छा ही नहीं लगता था। पराए पुरुष का विचार ही नहीं। इसलिए फिर उसका लाभ तो होगा न! अभी भी अंदर उनके प्रति बहुत मान है, लेकिन वह मैं दिखाता नहीं हूँ, वर्ना चढ़ बैठेंगी वापस। चढ़ बैठेगी या नहीं? _ 'देवर हमारे लक्ष्मण जी जैसे' प्रश्नकर्ता : दादा, भाभी को आप पर गर्व था क्या? दादाश्री : हाँ, मुझे भी बचपन में 'लक्ष्मण जी' कहती थीं। वे कहती थीं, 'मेरे देवर लक्ष्मण जी जैसे हैं। मेरे देवर जैसा देवर नहीं मिलेगा'। क्योंकि हम दोनों एक ही उम्र के थे। मैं उनकी एड़ी की तरफ ही देखता था, चहेरे की तरफ नहीं देखा। जैसे लक्ष्मण जी ने सीता जी
SR No.034316
Book TitleGnani Purush Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Other
File Size2 MB
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