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________________ 230 ज्ञानी पुरुष (भाग-1) बिज़नेस कॉन्ट्रैक्ट का था और कॉन्ट्रैक्ट के काम पर जाता था। इसलिए हाथ में पच्चीस-पचास रुपए तो रहते थे। यों फिर रौब भी इतना था! इसलिए कोट में जो बिज़नेस के पैसे पड़े हुए थे न, पच्चीस तीस रुपए वे सब नोट निकालकर छुट्टे पैसे वगैरह सब जो कुछ भी था, भाई की जेब में रख दिए। मैंने अपनी जेब में एक भी पैसा नहीं रखा। __क्योंकि जब तक बड़े भाई के तहत हूँ, तो ये पैसे उन्हीं के कहे जाएँगे। पैसे मेरे कहलाएँगे ही नहीं। मॉरेलिटी उन दिनों भी थी। देखो न, जेब में जो पैसे थे, वे रखकर गए हम। उन्हें मन में ऐसा नहीं लगना चाहिए कि, 'बिज़नेस के पैसे ले गया। वे पीछे से आरोप न लगाएँ। उनके मन में ऐसा लगना चाहिए कि 'कुछ भी नहीं लिया। कुछ भी लिए बगैर गया है!' तो इससे उन्हें हमारी सिन्सियरिटी दिखेगी। बड़े भाई की जेब में पैसे रखकर, ग्यारह बजे कोट पहनकर वहाँ से निकल गया और फिर रौब से स्टेशन की ओर चला। घोड़ा गाड़ी वाला स्टेशन का एक आना लेता था लेकिन एक आना लाऊँ कहाँ से? मेरी जेब में पैसे ही नहीं थे। क्या करता? तब चलते-चलते बड़ौदा के स्टेशन पर पहुँच गया। गाड़ी चलने में पंद्रह मिनट की देरी थी। गाड़ी अहमदाबाद जा रही थी। माँगना नहीं आया तो झूठ बोलकर लिए पैसे अब वहाँ स्टेशन पर गया, तो जयंती भाई करके एक परिचित मित्र मिल गया। उसने कहा, 'क्यों, कहाँ जा रहा है? भादरण जाना है?' मैंने कहा, 'नहीं भाई, मुझे कहीं और जाना है। मुझे अहमदाबाद जाना है। न जाने जेब बदल गई है या क्या, कोट नहीं बदला लेकिन पैसे उस जेब में रह गए'। तो उन्होंने पूछा, 'कितने रुपए चाहिए? पाँच रुपए ले जाओ'। तब मैंने कहा, 'नहीं, पाँच रुपए नहीं। तेरे पास एकाध रुपया हो तो दे। मुझे उधार चाहिए'। उससे एक रुपया उधार लिया'। दोस्त था इसलिए उससे एक रुपया उधार लिया, वर्ना नहीं माँगते। माँगना नहीं आता था। वह भी ज़रा झिड़ककर ले रहे हों, उस तरह से नहीं कि 'मुझे रुपया दो, ऐसा नहीं। 'एकाध रुपया हो तो दे दो' ऐसा कहा तो उसने रुपया दिया।
SR No.034316
Book TitleGnani Purush Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Other
File Size2 MB
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