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________________ 158 ज्ञानी पुरुष (भाग-1) की थीं। आखिरी आठ साल तक मैं उनके पास ही रहा था क्योंकि वे 'मेरा अंबालाल, मेरा अंबालाल, मेरा अंबालाल' करती रहती थीं और कुछ भी नहीं चाहिए था। मेरा चेहरा देखते कि खुश। रात को कई बार वे अचानक ऐसे उठ जाती थीं, 'मुंबई से नहीं आया, मुंबई से नहीं आया'। इसलिए फिर मैंने अपने पार्टनर से कहा 'कुछ समय के लिए आऊँगा लेकिन ज्यादातर यहाँ बा के पास रहूँगा'। हाँ, मदर तो बहुत अच्छी थीं, मेरे बगैर उन्हें बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता था। मुझे बाहर गाँव से वापस आना पड़ा था। वहाँ उनके पास रहना पड़ा था। 'बाकी सब करना। मुझे पैसे भी नहीं चाहिए, कुछ भी नहीं चाहिए।' पैसे तो कभी भी माँगे ही नहीं, कभी भी नहीं। देते थे तब भी कहती थीं कि मुझे पैसों का क्या करना है? मेरे लिए तो तू आ गया तो बहुत हो गया! मैंने कहा 'बा, आपको पैसे क्यों नहीं चाहिए?' तो ऐसा कहा कि "अपने यहाँ कहावत है कि 'बाप देखता है लाते हुए और माँ देखती है आते हुए'। मेरे लिए तो तू आया तो बहुत हो गया।" और बाप तो, 'क्या लाया', ऐसा पूछते रहते हैं। मुंबई से आया तो तू कुछ लाया है क्या? अभी ऐसा नहीं होता है न? माँ भी लाता हुआ ही देखती है? बा को चौबीसों घंटे अंबालाल याद रहते थे। मैं अगर मुंबई जाऊँ तो उनसे रहा नहीं जाता था, सहन नहीं हो पाता था। और कुछ भी नहीं चाहिए था, बस अंबालाल चाहिए। चौबीसों घंटे, सिर्फ यही ध्यान, जब देखो तब ध्यान में वही रहता था। अतः मुझे काम-धंधा छोड़कर सातआठ सालों तक यहीं रहना पड़ा। उनके साथ ही बैठा रहता था। फिर मंत्र बुलवाता था, दूसरा कुछ बुलवाता था, और कुछ बुलवाता था। 'दर्शन करने जैसा तो सिर्फ तू ही है' बा तो कभी भी बाहर मंदिर में दर्शन करने नहीं गए। अष्टमी हो या गोकुलाष्टमी हो, सभी दोस्त क्या कहते थे कि कल बा को दर्शन करवाने के लिए गाड़ी भेजूंगा। तब मुझे किसी से गाड़ी लेना अच्छा नहीं
SR No.034316
Book TitleGnani Purush Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Other
File Size2 MB
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