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________________ 156 ज्ञानी पुरुष (भाग-1) तो यह नासमझी घुस गई थी। संस्कारी परिवार में नासमझी घुस जाती है औरों का देखकर, पड़ोसियों का लेकिन उसके बाद तो इस एक ही घटना ने उन्हें सावधान कर दिया। ऐसा तो शायद ही कभी होता है, ऐसा कहीं रोज़-रोज़ नहीं होता। उसके बाद तो जो कोई भी आता है, आराम से खा-पीकर ही जाता है। दूसरों के मन बिगड़े, इसलिए नहीं खाया किसी के भी यहाँ प्रश्नकर्ता : आप तो इतने जागृत थे इसलिए, लेकिन बाहर अन्य कहीं पर तो ऐसा ही हो गया है कि मन बिगड़े बगैर रहता ही नहीं। दादाश्री : हाँ, इसीलिए कम उम्र से ही पचास साल की उम्र तक किसी का मेहमान नहीं बना। एक ही जगह पर गए थे। वहाँ भोजन के समय उनका चेहरा फूला हुआ देखा होगा। उसके बाद से मैंने सोच लिया कि 'इन लोगों के यहाँ खाना खाने जाने जैसा नहीं है। अपने पास हो तो खिला देंगे लेकिन खाने के लिए तो जाना ही नहीं है'। मैंने तो किसी के यहाँ खाना नहीं खाया है, ननिहाल में भी नहीं जाता, बहुत हुआ तो एकाध दिन के लिए जाता हूँ। लोगों के मन बिगड़ चुके हैं और वह चिढ़ा हुआ इंसान क्या नहीं कर सकता? 'हम' छोटे थे फिर भी बा पूछते थे प्रश्नकर्ता : दादा, ऐसा भी सुना है कि आप छोटे थे, फिर भी बा आपसे पूछते थे? दादाश्री : हाँ। एक बार व्यवहार में किसी को कुछ देना था तब हमारी बा ने हम से पूछा कि 'इसमें क्या करना चाहिए? क्या दूँ?' तब मैंने कहा, 'बा, आप छोटी-छोटी बातों में मुझसे क्यों पूछती हो? आप अस्सी साल की, मैं चवालीस साल का, तो मुझसे ज़्यादा तो आप जानती हो। आपको जो ठीक लगे वह करना'। तब बा ने कहा, 'नहीं! पूछना चाहिए तुझसे। मन जैसा चाहे वैसा नहीं कर सकते'। 'अस्सी साल का सुथार और पाँच साल का मालिक' लेकिन मालिक से पूछना पड़ता है। मैं चाहे कुछ भी (माँ) हूँ फिर भी सुथार ही मानी जाऊँगी।
SR No.034316
Book TitleGnani Purush Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Other
File Size2 MB
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